Thursday, September 30, 2010

मेस, खाने की टेबल और बतकही

गुजरे पलों की बात ही निराली होती है. उनको याद करना मानों ऐसे लगता है जैसे हम आज उनको जी रहे हो. लगता है जैसे किसी एलबम के पन्ने एक-एक करके खुल रहे हों और घटनाएं चलचित्र की तरह सजीव हो उठे हों. पर जैसे भी आपको भान होता है कि ये तो बीता हुआ समय है, अचानक ही मन बोझिल हो जाता है. ये सच है, जब आप बहुत खुश होते हैं तो, कहीं न कहीं इक बात आपके मन में अनायास ही चली आती है, “आपकी वर्तमान खुशी के स्थायित्व से सम्बंधित”. साथ ही इक गम का साया भी अचानक आपको घेर लेता है और आप यही कामना करने लगते हैं कि ये पल स्थायी रहे. पर कहाँ ऐसा हो पाता. इसलिए जरूरत इस बात की है कि आप हर क्षण को महसूस करें. उसको जीयें.
कई कालेजों और स्कूलों के मैट्रिक और इंटरमीडिएट के रिजल्ट आने शुरू हो गए हैं साथ ही जश्न का माहौल भी बनता जा रहा है है. हो भी क्यों न इतने सालों की मेहनत रंग ला रही है. साथ ही एक स्वप्न भी देखना शुरू कर रहे है सब लोग अपने आने वाले भविष्य को लेकर. ये तो अच्छी बात है. जिदगी हमेशा से ही विस्तार लेती रही है. एक तरफ आपको नयी दुनिया में जाने का मौका मिलेगा. नए लोगों से मिलने का मौका मिलेगा तो कुछ पुरानी जगहें और लोग छूट जायेंगे. रह जायेंगी तो सिर्फ यादें. क्या उन यादों में आपके कालेज/स्कूल का मेस/कैंटीन भी रहेगा. जहाँ समय बिताने और बात करने के लिए आप जमा होते थे. जहाँ न जाने कितनी बातें हर दिन हम किया करते थे. कुछ हंसी-ठहाकों की, तो कुछ गंभीर बातें. कुछ अपने लोगों की, कुछ अपने शहर की, अपने कॉलेज की और न जाने कितना कुछ. हर दिन कुछ न कुछ नया होता था, बात करने के लिए. मेस में आने वाले लोगों की भी कई किस्में होती थीं. कुछ लोग हैं जो अक्सर ही सक्रिय रूप से शिरकत करते थे , तो कुछ कभी –कभी. कुछ ऐसे ही थे जो कभी कुछ नहीं कहते परन्तु धीमे –धीमे से मुस्कुराकर ये जतलाते रहते थे कि वो यहाँ उपस्थित हैं और इस बतकही का हिस्सा हैं. खाने की टेबल कभी उदास नहीं होती थी, न ही कभी खाने वाले लोग. हाँ जब खाने का समय नहीं हो तो आपके लिए मेस में बैठना बड़ा ही कठिन हो जाता है.
.................अब मेस का साथ तो छूट गया है लेकिन ये बात नहीं है कि वहाँ एक सूनापन होगा. हो सकता है एक सन्नाटा -सा आपके मन में हो ये सब सोचने के बाद. लेकिन आपके बाद कोई और आ जायेगा उस मेस को आबाद करने और बतकही का सिलसिला जारी रखने. आखिर मेस भी तो हमारी जिंदगी का इक भाग है और जिंदगी कभी नहीं रूकती है.

Monday, July 5, 2010

लीचू


हाँ, यही नाम था उसका –लीचू. जब मैंने पहली बार सुना तो बड़ा ही आश्चर्य हुआ. भला ये कैसा नाम है? वो उडीसा से थी इसलिए सोचा कि कोई वहाँ का प्रचलित शब्द हो जिसे मैं नहीं जानता हूँ. उम्र यही कोई १४-१५ साल रही होगी. मैं अपनी एक दोस्त के साथ उसके घर गया हुआ था. लीचू उसकी छोटी बहन थी. जब उसने सुना कि उसकी दीदी का कोई दोस्त घर आया है तो वो मुझसे मिलने आयी. आते ही उसने दोनों हाथ जोड़ कर कहा –नमस्ते. काफी अच्छा लगा यह देख कर. बहुत ही सीधे स्वाभाव कि थी वह. शुरू –शुरू में तो वह सामने ही नहीं आना चाहती थी. पर कुछ ही देर में मुझसे बात करने लगी. बातों –बातों में उसने बताया था मुझे कि उसे दक्षिण भारतीय फिल्में बहुत ही पसंद हैं. खासकर तेलुगु. उन दिनों मैं भुबनेश्वर से ही प्रबंधन की पढाई कर रहा था और मेरे हॉस्टल में भी तेलुगु फिल्में अच्छी –खासी तादाद में देखी जाती थीं. जब मैंने उसे ये बताया की मैं भी ये सब फिल्में देखता हूँ तो उसने कुछ फिल्मों की फरमाइश कर दी कि अगली बार जब घर आना तो ये सब फिल्में जरूर लाना. मैं फिल्मों के नाम तक याद नहीं कर सका था मुझे याद है. पर मैंने उसे ये जरूर आश्वासन दिया था कि अगली बार आने पर जरूर लाऊंगा. खैर, अगली बार जाने का मौका ही नहीं मिला. मैंने अपनी दोस्त से पूछा, जो उसकी बड़ी बहन थी कि इसका नाम बड़ा अजीब सा है. उड़िया में इसका क्या अर्थ होता है. वह सुनकर हँसने लगी. बोली कि ऐसा कुछ नाम नहीं होता है हमारे यहाँ. उसने बताया कि हम सब तीन बहनें ही हैं. मेरी दादी की बहुत ही इच्छा थी कि उनके एक पोता(बेटे का बेटा) होता. पर हम सिर्फ बहनें ही हैं. जब भी वो बच्चे के जन्म की बात सुनती थीं तो अस्पताल में मम्मी को देखने के लिए आती थीं. पर जैसे ही सुनती कि लड़की हुई है वो बिना हमें देखे ही अस्पताल से वापस लौट जाती थीं. ऐसा लीचू के जन्म होने पर भी हुआ था. जब लीचू को लेकर मम्मी अस्पताल से घर आयी थीं, तो दादी नाखुश थी. जब इसे उन्हें गोद में दिया गया तो उन्होंने लेने से मना कर दिया और झल्लाते हुए कहा कि इसे “चूली” में डाल आओ. मेरे पास नहीं लाओ. ऐसा कई बार हुआ कि जब भी इसे उनकी गोद में दिया जाता तो वो नाक – भौं सिकोड़ लेती और बोलती कि – इसे “चूली” में डाल आओ. चूली का मतलब उड़िया में होता है “मिट्टी का चूल्हा”. तब से हम सब चूली को उल्टा करके इसे लीचू बुलाने लगे और इसका नाम लीचू ही पड़ गया. मैं इस बात से लेकर थोड़ा गंभीर हो गया था. बहुत सारी बातें, बहुत सारे प्रश्न में मन में अचानक ही उठने लगे थे अपनी सामाजिक व्यवस्था को लेकर. लोगों की सोच को लेकर. क्या होगा इस समाज का जो बदलना ही नहीं चाहता? इसी सोच में डूबा हुआ था कि तभी लीचू नाश्ता लेकर आ गयी. वो मुझे देखकर धीमे से मुस्कुराई. शायद उसने मेरी और उसके दीदी की बात सुन लिया था. नाश्ता कर के मैंने वहाँ से वापस हॉस्टल आने की इजाजत मांगी. मैं और मेरी दोस्त वापस आने लगे. लीचू बाहर के गेट तक हमें छोड़ने आयी. बाहर आने पर उसने हमें विदा किया और मुझे देख कर फिर से अपने दोनों हाथ जोडकर बोली –“ नमस्ते”.

Sunday, July 4, 2010

बेचारे पति

हम आये दिन महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं. पर वो दिन दूर नहीं जनाब जब पुरुष सशक्तिकरणकी बात कर रहे होंगे. मैं इस बात से सहमत हूँ कि महिलाओं को आगे बढ़ने का मौका मिलना चाहिए. लेकिन पुरुषों ने जो अपनी दुर्गति बीते हुए दशक में करवाई है उससे तो यही लगता है कि ज्यादा दिन दूर नहीं जब इनके सशक्तिकरण की बात उठने लगे. मैं इस बात से इत्तफाक नहीं रखना चाहता कि क्या सही है और क्या गलत. पर हाँ, इस बात से जरूर मतलब है कि क्या होने वाला है. हर तरह से सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं और कामों में में आरक्षण और अन्य सुविधाएं देकर महिलाओं कि भागीदारी सुनिश्चित कि जा रही है. ये एक अच्छा कदम है. कुछ महिलाएं तो वास्तव में अच्छा कर रही है. लेकिन कुछ को तो ढोया जा रहा है. खैर इतनी लंबी चौड़ी भूमिका देने के मूड में नहीं हूँ आज. ज्योंज्यों इनकी कामों में भागीदारी बढती जा रही है. इनका गुरूर बढ़ता जा रहा है. मैं एक उदाहरण आज देना चाहता हूँ जो आज ही मुझे पता चला है. मैंने अभी नईनई नौकरी ज्वाइन कि है. जहाँ मैं रहता हूँ उसी मकान में एक महिला शिक्षक हैं. जो एक सरकारी उच्च विद्यालय में प्रभारी प्रधानाचार्य हैं. भाई अच्छे पद पर हैं और अच्छी खासी तनखाह मिल रही है वो भी बिना पढाये तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है. माशाल्लाह खाखा के फुटबाल हो गयी हैं. अब ये मत कहियेगा कि वो खा अपना रही हैं, तो मुझे ऐसी बात नहीं लिखनी चाहिए. अभी तक तो मैं बात उनकी कर रहा था. अब चलिए उनके पति की बात कि जाये जो दुर्भाग्यवश बेरोजगार हैं और उनके पति भी हैं. घर के सारे काम करते हैं. खाना बनने, पानी भरने, बाजार करने से लेकर उनके स्कूल का काम करने तक. वो सुबहसुबह मोटरसाइकिल से उनको स्कूल छोड़ने जाते हैं. उसके बाद दिन-भर का काम साइकिल से ही करते हैं क्योंकि मोटरसाइकिल का उपयोग अन्य कामों के लिए मनाही है. अभी जनगणना का काम हो रहा था. उन्होंने ही सारे काम किये. मैडम तो आराम कर रही थीं पूरी गर्मी में. वो चुपचाप से ही रहते हैं. और हो भी क्यों ? गुजारा जो करना है. ये बात सच है कि अगर आपकी पत्नी काम करती है तो उसको उस बात का गुरुर हो जाता है. पुरुषों में यह बात कम ही देखने को मिलती है. महिला पाठक ये सोचें कि मैं एक पक्षीय बात कर रहा हूँ. ये सही है. और सबसे बुरी बात तो आज लगी जो मैंने अपने कानों सुनी. उसकी के बाद मैंने इसे लिखने का निश्चय किया. आज शाम को दोनों लोग रसोई में काम कर रहे थे. किसी बात पर महिला ने कहा कि –“तुम काम करते हो या मैं? जो मुझे नसीहत देते रहते हो. जब पढाई करनी थी तुमें नौकरी के लिए तब तो तुम अपनी भाभी के साथ मस्ती कर रहे थे, मजे कर रहे थे. इसलिए अपने काम से मतलब रखा करो”. सुनकर मैं दंग था. नौकरी तो बहुत से लोग करते हैं पर इस तरह का व्यक्तव्य शायद ही सुनने को मिलता है और ये एक जिम्मेदार नागरिक को शोभा भी नहीं देता.