Saturday, March 30, 2013

“बदल रहा है हर गाँव हर शहर”

“बदल रहा है हर गाँव हर शहर” टेलीविजन देखते वक्त आप यह पंचलाइन जरूर सुनते होंगे. यह ACC Cement  के विज्ञापन का पंचलाइन है. जिसमें एक बुजुर्ग पूछते हैं “गाँव कैसा है” और उसके जवाब में पूरा ऐड दिखाते हुए यह लाइन दुहरायी जाती है -“बदल रहा है हर गाँव हर शहर”. अब गाँव कितना बदला यह तो विवेचना का विषय है. क्या सीमेंट भी गाँव और शहर का विभेद मिटा सकता है? जवाब हो सकता है “हाँ”. क्योंकि विकास के लिए जरूरी आधारभूत संरचना के लिए सीमेंट अहम् होता है. अगर सीमेंट की फैक्ट्री किसी क्षेत्र में लग जाए तो ? जहाँ तक मेरी सोच जाती है “कायाकल्प हो जाना चाहिए”. कम से कम रोजगार तो मिलेगा ही स्थानीय लोगों को.
दो- तीन सीमेंट फैक्ट्रियों को नजदीक से जाना है मैंने. जिसमें से एक झारखण्ड राज्य के पलामू जिले के  जपला स्थित “बंजारी सीमेंट फैक्ट्री”. हाल ही में इस फैक्ट्री के मेन गेट पर पंजाब नेशनल बैंक के द्वारा नीलामी का एक नोटिस लगवाया गया है. जिसे लेकर स्थानीय लोगों और फैक्ट्री मजदूरों में आक्रोश है. इसी सप्ताह मैंने यह खबर स्थानीय समाचार पत्रों में पढ़ी थी. उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में जेपी सीमेंट की फैक्ट्री लगी हुई है. उधर से जब भी गुजरता हूँ चारों तरफ सड़क, दुकान, घर-मकान इत्यादि पर सीमेंट ही सीमेंट नजर आता है. यहाँ तक कि सीमेंट से पुते इन्सान तक भी. इस फैक्ट्री के शुरू होने के समय उत्पन्न विवाद से तो आप रु-ब-रु होंगे ही. ज्यादा नहीं कुछ लोगों की जान गयी थी ऐसा बताते हैं. इस फैक्ट्री में रोजगार के नाम पर कुछ मजदूरों को पैरवी पर दिहाड़ी मजदूरी पर काम मिल तो जाता है. लेकिन बिचौलिए ठेकेदारों की मान-मनौअल करना पड़ता है. कुछ कमाई तो उनके ही दक्षिणा में चली जाती है. स्थानीय मजदूर बताते हैं कि अगर दो हफ्ते लगातार काम कर लो तो महीने भर आराम की जरूरत होती है. आप सोच रहे होंगे  पैसे मिल जाते होंगे गुजारे लायक. जी नहीं इतनी श्रम साध्य मेहनत करनी पड़ती है कि लाचार हो जाते हैं सब काम छोड़ घर पर आराम करने के लिए.
अब आते हैं मुख्य बात पर जहाँ से सीमेंट फैक्ट्रियों के द्वारा परिवर्तन की बात शुरू हुई थी. यानी ACC Cement की बात. २०१०-११ के अप्रैल महीने की बात है जब मैं एक Carpet Manufacturing & Export company  में काम करता था. मुझे कुछ दिनों के लिए राजस्थान के बूंदी जिले में स्थित भारत की पुरानी सीमेंट फैक्ट्रियों में से एक ACC Cement की फैक्ट्री जाने का मौका मिला था. वाकया यूँ था कि कम्पनी के CSR वालों ने हमारी कम्पनी से संपर्क किया था और बताया था कि उन्होंने तक़रीबन आसपास के दस गाँवों को गोद ले रखा है. उनके आजीविका के लिए वो काम करते हैं. बहुत सारे परिवार तो फैक्ट्री में ही अलग-अलग पदों पर हैं. उनका निवेदन था कि हमारी कम्पनी Skill Development के रूप में Carpet Weaving को वहां promote करे. हमें दो दिनों के लिए उन्होंने आमंत्रित भी किया था कि हम गाँवों में लोगों से मिल लें और संभावनाएं तलाश करें. जगह का नाम था लाखेरी. बूंदी रोड पर ही पड़ता है. हमने कम्पनी के CSR हेड से मुलाकात की. उन्होंने हमें Skill Development के लिए आमंत्रित किया था और उनके हेड का अनुभव इस क्षेत्र में था ही नहीं. हमने जब एरिया विजिट के लिए बात की तो उन्होंने एक गैर सरकारी संस्था के कुछ प्रतिनिधियों को हमारे साथ लगा दिया. वही संस्था कम्पनी के लिए तीन सालों का एक प्रोजेक्ट कम्यूनिटी डेवलपमेंट पर चला रही थी.
दो दिनों के भ्रमण के बाद बहुत ही मायूस हुआ मैं. एक सौ वर्ष पूरे हो गए थे ACC Cement फैक्ट्री को यहाँ पर. गांवों को गोद लिया हुआ था उन्होंने ऐसा बताते हैं. लेकिन वर्तमान स्थति बहुत ही निराशा जनक थी. मीणा और गुर्जर ज्यादा है इस क्षेत्र में. पहाड़ी क्षेत्र है. पीने के पानी का त्राहिमाम रहता है तो कृषि की कौन पूछे. गाँवों में लोगों से मिलने के लिए हम सुबह साढ़े छः बजे गए. गाँव में एक भी महिला दिखाई नहीं पड़ी. पता चला सभी आस पास के ईट-भट्ठों पर काम करती हैं दिन भर. इसलिए सुबह छः बजे निकलती हैं और शाम पांच बजे के बाद आती हैं.बहुत ही दयनीय स्थिति है महिलाओं की वहां पर.पुरुषों में कुछ बड़े शहरों में पलायन कर गए थे और जो बचे हुए थे वो दिन भर शराब पी कर घर पर बिस्तर तोड़ते थे. गाँवों में अजीब सी मनहूसी छाई हुई थी. ऐसे वीरान गाँव तो मैंने अभी तक नहीं देखे थे.
कुल आठ सौ के आस पास मजदूर काम करते थे उस फैक्ट्री में जो कि आस-पास के गाँवों से थे. लेकिन सिर्फ दिहाड़ी मजदूर ही. और किसी बड़े पद पर कोई भी नहीं था. कम्पनी ने एक ही सुविधा दिया था कि कृषि और पीने के लिए पानी कम लागत पर उपलब्ध करा रही थी. पहाड़ों से चूना पत्थर निकल लेने के बाद क्रेटर बन जाता है. जिसमें बरसात का पानी जमा हो जाता है. फैक्ट्री वालों ने वहां पम्प लगा कर पानी नीचे तक पहुँचाने की व्यवस्था की थी. जिसे लोग पैसे से खरीदते थे अपनी आवश्यकता अनुसार. मजदूरी करने वालों में कुछ आज खाली बैठे मिल जाते हैं. कहते हैं कि मेहनत की एक सीमा होती है. कब तक कोई मजदूरी करेगा. कोई रोजी-रोजगार भी नहीं कर पाए जीवन में इसलिए खाली बैठे रहते हैं. राजस्थान अपने हैंडी क्राफ्ट की वजह से भी जाना जाता है. लेकिन आपको इस क्षेत्र में कोई कला भी नहीं मिलेगी जिससे लोग गुजरा कर सकते. बताते हैं कि पहले यहाँ कुछ क्राफ्ट का काम होता था लेकिन फैक्ट्री में मजदूरी करने के पीछे सारी कलाएं छूटती चली गयीं. आज ना तो मजदूरी करने की हिम्मत बची है न लोककला का हुनर. कम्युनिटी डेवलपमेंट के नाम पर गैर सरकारी संस्था वृक्षारोपण कराती है या फिर मंदिर बनवाती है. मंदिर क्यों? मैंने एक वोलंटियर से पूछा तो उसने जवाब दिया कि यहाँ के लोग यही चाहते हैं. कम्पनी कोई भी विरोध नहीं चाहती है इसलिए मंदिर बनवा देती है. मैंने कहा कि आप समझाते नहीं हैं कि मंदिर से क्या उनको रोजगार मिल जायेगा. उसने जवाब दिया आस्था की बात है इसलिए हम कुछ नहीं कह पाते.
मेरी इच्छा थी कि वहां पर काम शुरू किया जाए. पर ACC Cement के प्रबंधक कोई भी वित्तीय सहायता देने के लिए तैयार नहीं थे. उनका कहना था कि प्रशिक्षण और उत्पादन का सारा खर्च मेरी कम्पनी वहन करे और यहाँ काम करे. अंततः कोई सहमति न बन पाने की वजह से वहां काम शुरू नहीं हो पाया. तकरीबन दस से ज्यादा मीटिंग्स की थी मैंने वहां के पुरुष और महिलाओं से. एक उम्मीद थी उनको कि कुछ आजीविका का माध्यम मिलेगा. लेकिन वह भी संभव नहीं हो पाया. आज तक़रीबन दो साल बीत चुके हैं इस बात को. टेलीविजन के विज्ञापन में सीमेंट ने गाँव को बदलता हुआ दिखा दिया लेकिन उस समय की जो स्थिति मैंने देखी थी उससे यही अनुमान लगा पा रहा हूँ कि शायद ऐसा नहीं हुआ होगा. भारत सरकार ने NRLM लांच किया है. हो सकता है कि इससे वहां रोजगार सृजन हो सके. लेकिन देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए इस मिशन से ज्यादा उम्मीद बेमानी ही होगी.

Friday, March 29, 2013

सफ़ेद जंगल... सुलगते पलाश


इधर होली के रंग हल्के हुए और उधर पलाश ने बेरुखे जंगलों में आग लगा दिया. घास सूख चली हैं और मिटटी गहरी पीले रंग की दिखाई देने लगी है. कुछ पुरानी यादों ने घेरा सो इस बार निकल पड़ा अलसुबह पास के जंगलों की तरफ. रास्ते में एक पहाड़ी नदी पड़ती है, अमूमन बरसात में ही उफनने वाली. बाकी समय फर्जी तरीके से नदी के रेत का दोहन. वैसे तो हर चीज जो यहाँ मिलती है लोगों के दूषित नजरों का शिकार हैं. पहाड़ इतने वीभत्स थोड़े ही थे. बेतरतीब पत्थरों की कटाई और ब्लास्टिंग ने इतना क्रूर रूप दे दिया है उन्हें. शहर में उगने हर वाली बड़ी इमारत की नींव खोदिये तो पत्थरों के टुकड़े वहां सिसकते नजर आ जायेंगे. किसने उनको गायब किया या आज तक कर रहे हैं, बताने की जरूरत नहीं है. खैर, पलाश, सखुआ, बीड़ी पत्ता....सबकी अपनी- अपनी दुःखभरी दास्तान है जंगलों में. जिन गाँवों का आज मैंने रुख किया था आज, कभी उन गाँवों से मेरे साथ पढने वाले लड़के-लड़कियां आते थे. तब तो न इधर पक्की सड़क थी और न दानारो नदी पर पुल. बरसात में उफ़नती नदी को पार कर जैसे-तैसे गीले कपड़ों में ही स्कूल पहुँचते थे सब. उन सभी दोस्तों का क्या हुआ मुझे नहीं मालूम. हाँ जब कभी यादें परेशां कर देती हैं तो लैप टॉप के की बोर्ड पर उँगलियाँ थिरकती हैं, गूगल में या फिर फेसबुक पर नाम टाइप करने के लिए. कुछेक दोस्त तो मिल जाते हैं पर वो नहीं मिलता जिसकी तलाश रहती है. संयोगवश आज की दुपहरी जंगल में लकड़ी के गट्ठर उठाती दो औरतें मिली. बातों- बातों में उन्होंने अपने गाँव का नाम बताया जो पास में ही था. उस गाँव कुछ लोगों को मैं जानता हूँ मेरे बचपन से. मेरे क्लासमेट थे. मैंने उनके नाम लिए उत्सुकतावश शायद वो उन्हें जानती होगी. मैंने गौर किया कि एक नाम को सुनते ही उसका चेहरा सूख गया था. मैंने जानना चाहा कि क्या वे उन्हें जानती हैं. एक औरत तो थोड़ी उम्रदराज थी उसने साथ की नवयुवती की तरफ इशारा करते कहा एक को तो वे नहीं जानती हैं. हाँ दूसरे की विधवा है यह औरत. मैंने दूसरी औरत की तरफ देखा. वह चुपचाप अपने गट्ठर बाँधने में लगी रही. किसी से मिलना भी हो रहा है तो इस तरह. नियति ने मिलाया भी तो कैसे? मैंने उससे पूछा अपने दोस्त के बारे में तो उसने दो टूक शब्दों में जवाब दिया- "पार्टी में था. पुलिस मुठभेड़ में मारा गया." सन्न रह गया था मैं उसकी बातें सुनकर.     
इस क्षेत्र में आये दिन ऐसे मुठभेड़ होते रहते हैं. अनेक लोग मारे जाते हैं चाहे वह पुलिस के हों या फिर पार्टी के लोग. कुछ की खबर अख़बारों में आ पाती है कुछ कि नहीं. कभी मरने वालों को लोग पहचानने से भी इंकार करते हैं. जो भी मरता है जैसे भी मरता हो पर उसके पीछे रह जाती हैं उनकी विधवाएं. कितनी विधवाएं कहना या अनुमान लगाना मुश्किल है. हाँ एक बात तो तय है कि उनकी संख्या हर साल बढती ही जा रही है. अपने अपने गट्ठर संभाले दोनों औरतें चली गयीं और मैं वहीँ जंगल में खड़ा रहा गया अपनी दोनों आँखें बंद किये. दिमाग में एक ही बात कौंध रही थी- जब जब यहाँ पलाश सुलगते हैं...जंगल सफ़ेद हो जाता है....वैधव्य सफेदी...आह.

Friday, March 8, 2013

रामेश्वरम : पत्रकार जी की डायरी -२


१५ जनवरी १९९४, अविभाजित बिहार के पलामू प्रमंडल के लिए एक ऐतिहासिक तारीख था जब डाल्टनगंज (अब मेदिनीनगर) में एफ.एम. रेडियो प्रसारण केंद्र की शुरुआत हुई. तत्कालीन केंद्र प्रभारी श्री गिरीन्द्र प्रसाद के कुशल नेतृत्व में नवस्थापित केंद्र से “ग्रामीण सभा” कार्यक्रम प्रसारित करने का निर्णय हुआ. किसानों को संबोधित कार्यक्रम का समय संध्या ७:०० बजे तय हुआ. प्रसारक मंडल में मुख्यरूप से दो प्रस्तोताओं की चर्चा हुई. एक श्री रामेश्वरम जो हर शनिवार को “पत्रकार जी की डायरी” लेकर आते थे और दूसरे गढ़वा जिले के डा० नथुनी पाण्डेय जो हर गुरुवार को “मास्टर जी” के रूप में ग्रामीण श्रोताओं और किसान भाइयों के पत्रों के जवाब “चिट्ठी मिलल” कार्यक्रम में दिया करते थे. ग्रामीण सभा की लोकप्रियता पलामू प्रमंडल के हर शहर और गांव में लगभग एक दशक तक बनी रही. यह सब संभव हो पाया रामेश्वरम के आकाशवाणी डाल्टनगंज को निस्वार्थ सहयोग और पलामू की असाधारण समझ के कारण. “आकाशवाणी गांव में कार्यक्रम” की नीले रंग की वैन पलामू प्रमंडल के हर क्षेत्र और लगभग हर गांव में गयी. जिसका कुशल नेतृत्व रामेश्वरम ने ही किया था. आकाशवाणी की टीम सुदूर जंगलों में जाती थी और ग्रामीणों और उनके विचारों से रूबरू होती थी. डा० पाण्डेय रामेश्वरम को याद करते हुए बताते हैं कि – “रामेश्वरम जी की वजह से ही आकाशवाणी पलामू प्रमंडल में जन-जन तक व्याप्त हो सकी. “पत्रकार जी की डायरी” का प्रसारण १३१ कड़ियों में लगातार हर शनिवार को हुआ. जिसमें रामेश्वरम ने पलामू से संबंधित तथ्यों, खूबियों और समस्याओं से संबंधित अपने अनुभवों के आम जनता के साथ उन्हीं की पलामावी भाषा में साझा किया. इस कार्यक्रम की जीवन्तता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि “चिट्ठी मिलल” कार्यक्रम में सबसे ज्यादा पत्र “पत्रकार जी की डायरी” के सम्बन्ध में ही आते थे.” इस बात से यह तो स्पष्ट है कि रामेश्वरम गाँवों-गाँवों के कितने प्रसिद्ध थे और उनकी समझ पलामू के बारे में कितनी गहरी थी. 
उन वर्षों में आकाशवाणी का एफ.एम. प्रसारण अपनी क्षमता के मुताबिक जन-जन में व्याप्त हो रहा था. नतीजन गांव-गांव में रेडियो सेट देखने को मिलने लगे.” यह विडम्बना ही तो है जब बिहार में राज्य सरकार महादलितों के लिए मुफ्त में रेडियो वितरण कर रही है और इसके विस्तार की योजना बना रही है, तब जब आकाशवाणी पटना के जनप्रसिद्ध ग्रामीण विकास और खेती गृहस्ती के कार्यक्रम दम तोड़ रहे हैं. पर उस दशक में पलामू में एफ.एम. सेटों की बिक्री अचानक ही बढ़ गयी थी. इसका श्रेय रामेश्वरम को भी जाता है. उस वक्त मैं हाई स्कूल में था, जब मैंने रामेश्वरम को उनके कार्यक्रम की वजह से जाना था. “पत्रकार जी की डायरी” में  एक गजब का आकर्षण था जिसने मुझे रामेश्वरम और पलामू के नजदीक लाने में बड़ी भूमिका अदा की. कई वर्षों का अथक मेहनत और संस्कृति से लगाव के कारण ही पलामू की इतनी जानकारी आम श्रोता तक पहुँच सकी. लोगों को रेडियो कार्यक्रमों के माध्यम से जागरूक करना, उनके विचारों को आम लोगों तक रेडियो के माध्यम से पहुँचाना, श्रोता संघों का संगठन तैयार करना भी उनकी दिनचर्या में शामिल था. वे श्रोता संघ के अध्यक्ष भी थे. यूँ कहें तो रामेश्वरम सही मायनों में पत्रकार थे.

Wednesday, March 6, 2013

रामेश्वरम : पत्रकार जी की डायरी -१


आरंभ से ही पलामू अपनी भूख, गरीबी, सूखा, आकाल और सामंतवादी शोषण की वजह से भारत में जाना जाता रहा है. साथ ही अपने प्रतिरोधों की वजह से इसे भारतीय इतिहास के पन्नों में जगह मिली है. पलामू जमींदारी प्रथा और बंधुआ मजदूरी का भी गवाह रहा है. पलामू की इसी धरती पर जन्मे थे “रामेश्वरम” .  ये पलामू के प्रथम पलामूवासी पत्रकार थे जिनकी रिपोर्ट अनेक ख्यातिप्राप्त पत्र-पत्रिकाओं में छपी. जिन्होंने पलामू के संघर्ष में अपना जीवन अर्पण किया है.  लेकिन रामेश्वरम केवल पत्रकार भर नहीं होना चाहते थे. पलामू में सदियों से चल रहा शोषण उन्हें उद्वेलित करता था. रामेश्वरम ने इस बंधुआ मज़दूरी के ख़िलाफ आंदोलन छेड़ा. वे पलामू के गाँवों में अकेले घूमते रहे और पीढ़ियों से बंधक रहे मजदूरों को छुड़ाने का काम शुरु किया. आजीवन इसके लिए काम करते रहे. वे सबकी मदद करते थे. पलामू पर काम करते हुए इन्हें काफी ख्याति भी मिली, परन्तु ये पलामू छोड़ कर कभी नहीं गए. रामेश्वरम बिहार के सबसे पिछड़े पलामू में पैदा हुए और उसी पलामू में उन्होंने अपनी आख़री साँसें लीं. ७ जून २००७ को रामेश्वरम इस दुनिया से चुपचाप चले गए. उनके कई क़रीबी लोगों को भी रामेश्वरम के चले जाने का पता नहीं चला था. इस वर्ष जून महीने में उनको गए पांच वर्ष हो जायेंगे. पलामू फिर एक बदहाली के दौर से गुजर रहा है. अपनी आवाज तलाश रहा है जो गत ३०-३५ वर्षों से रामेश्वरम के रूप में थी. एक लेख में फैसल अनुराग रामेश्वरम की वर्त्तमान में प्रासंगिकता पर लिखते हैं कि इनके विरासत को आगे बढ़ाने की जरूरत है क्योंकि पलामू की बेड़ियाँ अभी पूरी तरह से टूटी नहीं हैं तथा नवसामंतवाद अपना पैर भी पसार रहा है. ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में पत्रकार नहीं हैं पर किसी में पलामू और उनके लोगों के प्रति वो आदर और निष्ठा नहीं दिखती जो रामेश्वरम में थी.
रामेश्वरम का जन्म पलामू के हरिहरगंज में ६ दिसंबर १९३६ को एक नमक व्यवसायी के यहाँ हुआ था. इनका वास्तविक नाम रमेश कुमार गुप्त था जिसको बाद में उन्होंने रामेश्वरम कर लिया. कारण स्पष्ट था कि इनके आचरण से इनका जातिसूचक नाम मेल नहीं खाता था. साधारण चेहरा, लंबा कद, इकहरा साँवला शरीर और आँखों में चश्मा और असाधारण व्यक्तित्व ही रामेश्वरम की पहचान थी.
“क्रांति कुटीर” - डाल्टनगंज के इनके निवास का पता सभी को मालूम था - “क्रांति कुटीर”, शिवाजी मैदान के कोने का तिराहा, डाल्टनगंज . महाश्वेता देवी ने अपने पलामू पर केद्रित उपन्यास “भूख” (राधाकृष्ण प्रकाशन, १९९८) के आरंभिक हिस्सों में लिखा है -”... रामाश्रय शिवाजी मैदान में रहता है. वह पत्रकार है.” महाश्वेता देवी रचित यह पात्र रामाश्रय, पत्रकार रामेश्वरम ही थे, जो कोयल नदी के किनारे शिवाजी मैदान के पास रहा करते थे. यह क्रांति कुटीर पत्रकारों, लेखकों, कलाकारों, स्वतंत्रता सेनानियों और बुद्धिजीवियों के आकर्षण का केंद्र रहा है. यहाँ अनेक ख्यातिप्राप्त हस्तियाँ जिनमें अज्ञेय, महाश्वेता देवी, अग्निवेश, कैलाश सत्यार्थी, गोपाल सिंह नेपाली, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, शिवपूजन सहाय, भीष्म साहनी, नलिन विलोचन शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, राजनारायण, शैवाल, डा० खगेन्द्र ठाकुर आदि पलामू के अपने कार्यक्रम, शोध और प्रवास पर आते रहे हैं. यहाँ पर ही अनेक प्रतिभाओं ने आकार पाया है और अपने –अपने क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की है. इनकी पत्नी उर्मिला भारती को महाश्वेता देवी मदर इण्डिया, क्रांति कुटीर की अन्नपूर्णा आदि नामों से संबोधित करती थीं.    
महाश्वेता देवी ने रविवार एक अंक में रामेश्वरम पर एक कवर स्टोरी लिखी थी. रामेश्वरम के संपर्क में आने के बाद क्रांति कुटीर ही उनका पलामू का पता था. जब- जब वह अपनी लेखकीय योजना के तहत पलामू आतीं थी तो यही ठहरती थी. सुदूर क्षेत्रों में उनके साथ जाने वालों में रामेश्वरम की उपस्थिति अनिवार्य रहती थी. वो लिखती हैं कि –“ भारत का आईना है पलामू, और पलामू का आईना है रामेश्वरम. मुझे उनपर गर्व है. देश में बंधुआ मुक्ति आंदोलन के जन्मदाता रामेश्वरम हैं. उन्होंने ही इस आंदोलन में मुझे, स्वामी अग्निवेश और कैलाश सत्यार्थी को शामिल किया था. पलामू के सन्दर्भ में महाश्वेता देवी के उपन्यास, कहानी संग्रह एवं निबंध संग्रह की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. उन्होंने इनमें पलामू के प्रायः हर प्रसंग में रामेश्वरम के बारे में चर्चा की है. वे लिखती हैं कि – ”रामेश्वरम पलामू के बारे में तथ्य और आंकड़े एकत्रित करते हैं, कई सौ मील पैदल चलकर बंधुआ मजदूरों के गाँवों में जाते हैं और अपने से अधिक गजब के अपने परिवार जनों एवं निष्ठावान दोस्तों की सहायता से उन बाहर के लोगों की मेहमानदारी करते हैं, जो असली पलामू को जानने की उत्सुकता लिए आते हैं. पश्चिम बंगाल के तथाकथित राजनीतिक परिवारों में भी उपदेश और आचरण का ऐसा मेल मैं नहीं पाती, जैसा रामेश्वरम के परिवार में पाती हूँ. साँवला, शक्ल से ईमानदार और खैनी खाने वाला यह आदमी ठीक है.” (रविवार, १९ जुलाई १९८३). मैं रामेश्वरम को १९८१ से जानती हूँ. मुझे उनपर पूरा विश्वास है. रामेश्वरम ने ही मुझे बिहार के पलामू में बुलाया था. मैं रामेश्वरम के साथ पलामू के पहाड़, पठार, जंगल व घाटी के आदिवासी क्षेत्रों में कई बार घूमी हूँ. मैं रामेश्वरम की आभारी हूँ. (विज्ञान सभागार, नई दिल्ली, ८ मार्च १९९७. नेल्सन मंडेला द्वारा ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका के भाषण का अंश). 
                                              (अगले अंक में जारी)