“बदल रहा है हर गाँव हर शहर” टेलीविजन देखते वक्त
आप यह पंचलाइन जरूर सुनते होंगे. यह ACC Cement के विज्ञापन का पंचलाइन है. जिसमें एक बुजुर्ग
पूछते हैं “गाँव कैसा है” और उसके जवाब में पूरा ऐड दिखाते हुए यह लाइन दुहरायी
जाती है -“बदल रहा है हर गाँव हर शहर”. अब गाँव कितना बदला यह तो विवेचना का विषय है.
क्या सीमेंट भी गाँव और शहर का विभेद मिटा सकता है? जवाब हो सकता है “हाँ”.
क्योंकि विकास के लिए जरूरी आधारभूत संरचना के लिए सीमेंट अहम् होता है. अगर
सीमेंट की फैक्ट्री किसी क्षेत्र में लग जाए तो ? जहाँ तक मेरी सोच जाती है
“कायाकल्प हो जाना चाहिए”. कम से कम रोजगार तो मिलेगा ही स्थानीय लोगों को.
दो- तीन सीमेंट फैक्ट्रियों को नजदीक से जाना है
मैंने. जिसमें से एक झारखण्ड राज्य के पलामू जिले के जपला स्थित “बंजारी सीमेंट फैक्ट्री”. हाल ही में
इस फैक्ट्री के मेन गेट पर पंजाब नेशनल बैंक के द्वारा नीलामी का एक नोटिस लगवाया
गया है. जिसे लेकर स्थानीय लोगों और फैक्ट्री मजदूरों में आक्रोश है. इसी सप्ताह
मैंने यह खबर स्थानीय समाचार पत्रों में पढ़ी थी. उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में
जेपी सीमेंट की फैक्ट्री लगी हुई है. उधर से जब भी गुजरता हूँ चारों तरफ सड़क,
दुकान, घर-मकान इत्यादि पर सीमेंट ही सीमेंट नजर आता है. यहाँ तक कि सीमेंट से
पुते इन्सान तक भी. इस फैक्ट्री के शुरू होने के समय उत्पन्न विवाद से तो आप
रु-ब-रु होंगे ही. ज्यादा नहीं कुछ लोगों की जान गयी थी ऐसा बताते हैं. इस
फैक्ट्री में रोजगार के नाम पर कुछ मजदूरों को पैरवी पर दिहाड़ी मजदूरी पर काम मिल तो
जाता है. लेकिन बिचौलिए ठेकेदारों की मान-मनौअल करना पड़ता है. कुछ कमाई तो उनके ही
दक्षिणा में चली जाती है. स्थानीय मजदूर बताते हैं कि अगर दो हफ्ते लगातार काम कर
लो तो महीने भर आराम की जरूरत होती है. आप सोच रहे होंगे पैसे मिल जाते होंगे गुजारे लायक. जी नहीं इतनी
श्रम साध्य मेहनत करनी पड़ती है कि लाचार हो जाते हैं सब काम छोड़ घर पर आराम करने
के लिए.
अब आते हैं मुख्य बात पर जहाँ से सीमेंट
फैक्ट्रियों के द्वारा परिवर्तन की बात शुरू हुई थी. यानी ACC
Cement की बात. २०१०-११
के अप्रैल महीने की बात है जब मैं एक Carpet Manufacturing &
Export company में काम करता था. मुझे कुछ
दिनों के लिए राजस्थान के बूंदी जिले में स्थित भारत की पुरानी सीमेंट फैक्ट्रियों
में से एक ACC Cement की फैक्ट्री जाने का मौका मिला था. वाकया यूँ था कि
कम्पनी के CSR वालों ने हमारी कम्पनी से संपर्क किया था और बताया था कि
उन्होंने तक़रीबन आसपास के दस गाँवों को गोद ले रखा है. उनके आजीविका के लिए वो काम
करते हैं. बहुत सारे परिवार
तो फैक्ट्री में ही अलग-अलग पदों पर हैं. उनका निवेदन था कि हमारी कम्पनी Skill
Development के रूप में Carpet Weaving को वहां promote
करे. हमें दो दिनों के लिए
उन्होंने आमंत्रित भी किया था कि हम गाँवों में लोगों से मिल लें और संभावनाएं
तलाश करें. जगह का नाम था लाखेरी. बूंदी रोड पर ही पड़ता है. हमने कम्पनी के CSR हेड से
मुलाकात की. उन्होंने हमें Skill Development के लिए आमंत्रित किया था
और उनके हेड का अनुभव इस क्षेत्र में था ही नहीं. हमने जब एरिया विजिट के लिए बात
की तो उन्होंने एक गैर सरकारी संस्था के कुछ प्रतिनिधियों को हमारे साथ लगा दिया.
वही संस्था कम्पनी के लिए तीन सालों का एक प्रोजेक्ट कम्यूनिटी डेवलपमेंट पर चला
रही थी.
दो दिनों के भ्रमण के
बाद बहुत ही मायूस हुआ मैं. एक सौ वर्ष पूरे हो गए थे ACC Cement फैक्ट्री को यहाँ पर.
गांवों को गोद लिया हुआ था उन्होंने ऐसा बताते हैं. लेकिन वर्तमान स्थति बहुत ही
निराशा जनक थी. मीणा और गुर्जर ज्यादा है इस क्षेत्र में. पहाड़ी क्षेत्र है. पीने
के पानी का त्राहिमाम रहता है तो कृषि की कौन पूछे. गाँवों में लोगों से मिलने के
लिए हम सुबह साढ़े छः बजे गए. गाँव में एक भी महिला दिखाई नहीं पड़ी. पता चला सभी आस
पास के ईट-भट्ठों पर काम करती हैं दिन भर. इसलिए सुबह छः बजे निकलती हैं और शाम
पांच बजे के बाद आती हैं.बहुत ही दयनीय स्थिति है महिलाओं की वहां पर.पुरुषों में
कुछ बड़े शहरों में पलायन कर गए थे और जो बचे हुए थे वो दिन भर शराब पी कर घर पर
बिस्तर तोड़ते थे. गाँवों में अजीब सी मनहूसी छाई हुई थी. ऐसे वीरान गाँव तो मैंने
अभी तक नहीं देखे थे.
कुल आठ सौ के आस पास
मजदूर काम करते थे उस फैक्ट्री में जो कि आस-पास के गाँवों से थे. लेकिन सिर्फ
दिहाड़ी मजदूर ही. और किसी बड़े पद पर कोई भी नहीं था. कम्पनी ने एक ही सुविधा दिया
था कि कृषि और पीने के लिए पानी कम लागत पर उपलब्ध करा रही थी. पहाड़ों से चूना
पत्थर निकल लेने के बाद क्रेटर बन जाता है. जिसमें बरसात का पानी जमा हो जाता है.
फैक्ट्री वालों ने वहां पम्प लगा कर पानी नीचे तक पहुँचाने की व्यवस्था की थी.
जिसे लोग पैसे से खरीदते थे अपनी आवश्यकता अनुसार. मजदूरी करने वालों में कुछ आज
खाली बैठे मिल जाते हैं. कहते हैं कि मेहनत की एक सीमा होती है. कब तक कोई मजदूरी
करेगा. कोई रोजी-रोजगार भी नहीं कर पाए जीवन में इसलिए खाली बैठे रहते हैं.
राजस्थान अपने हैंडी क्राफ्ट की वजह से भी जाना जाता है. लेकिन आपको इस क्षेत्र
में कोई कला भी नहीं मिलेगी जिससे लोग गुजरा कर सकते. बताते हैं कि पहले यहाँ कुछ
क्राफ्ट का काम होता था लेकिन फैक्ट्री में मजदूरी करने के पीछे सारी कलाएं छूटती
चली गयीं. आज ना तो मजदूरी करने की हिम्मत बची है न लोककला का हुनर. कम्युनिटी
डेवलपमेंट के नाम पर गैर सरकारी संस्था वृक्षारोपण कराती है या फिर मंदिर बनवाती
है. मंदिर क्यों? मैंने एक वोलंटियर से पूछा तो उसने जवाब दिया कि यहाँ के लोग यही
चाहते हैं. कम्पनी कोई भी विरोध नहीं चाहती है इसलिए मंदिर बनवा देती है. मैंने
कहा कि आप समझाते नहीं हैं कि मंदिर से क्या उनको रोजगार मिल जायेगा. उसने जवाब
दिया आस्था की बात है इसलिए हम कुछ नहीं कह पाते.
मेरी इच्छा थी कि वहां
पर काम शुरू किया जाए. पर ACC Cement के प्रबंधक कोई भी
वित्तीय सहायता देने के लिए तैयार नहीं थे. उनका कहना था कि प्रशिक्षण और उत्पादन
का सारा खर्च मेरी कम्पनी वहन करे और यहाँ काम करे. अंततः कोई सहमति न बन पाने की
वजह से वहां काम शुरू नहीं हो पाया. तकरीबन दस से ज्यादा मीटिंग्स की थी मैंने
वहां के पुरुष और महिलाओं से. एक उम्मीद थी उनको कि कुछ आजीविका का माध्यम मिलेगा.
लेकिन वह भी संभव नहीं हो पाया. आज तक़रीबन दो साल बीत चुके हैं इस बात को.
टेलीविजन के विज्ञापन में सीमेंट ने गाँव को बदलता हुआ दिखा दिया लेकिन उस समय की
जो स्थिति मैंने देखी थी उससे यही अनुमान लगा पा रहा हूँ कि शायद ऐसा नहीं हुआ
होगा. भारत सरकार ने NRLM लांच किया है. हो सकता है कि इससे वहां रोजगार सृजन हो
सके. लेकिन देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए इस मिशन से ज्यादा उम्मीद बेमानी ही
होगी.