आरंभ से ही पलामू अपनी भूख, गरीबी, सूखा, आकाल और सामंतवादी शोषण की वजह से
भारत में जाना जाता रहा है. साथ ही अपने प्रतिरोधों की वजह से इसे भारतीय इतिहास
के पन्नों में जगह मिली है. पलामू जमींदारी प्रथा और बंधुआ मजदूरी का भी गवाह रहा
है. पलामू की इसी धरती पर जन्मे थे “रामेश्वरम” . ये पलामू के प्रथम पलामूवासी पत्रकार थे जिनकी रिपोर्ट अनेक ख्यातिप्राप्त
पत्र-पत्रिकाओं में छपी. जिन्होंने पलामू के संघर्ष में अपना जीवन अर्पण किया है. लेकिन रामेश्वरम केवल पत्रकार भर नहीं होना चाहते थे. पलामू में सदियों
से चल रहा शोषण उन्हें
उद्वेलित करता था. रामेश्वरम ने इस बंधुआ मज़दूरी के ख़िलाफ
आंदोलन छेड़ा. वे पलामू के गाँवों में अकेले घूमते रहे और पीढ़ियों से बंधक रहे
मजदूरों को छुड़ाने का काम शुरु किया. आजीवन इसके लिए काम करते रहे. वे सबकी मदद करते थे. पलामू पर काम करते हुए इन्हें काफी ख्याति भी
मिली, परन्तु ये पलामू छोड़ कर कभी नहीं गए. रामेश्वरम
बिहार के सबसे पिछड़े पलामू में पैदा हुए और
उसी पलामू में उन्होंने अपनी आख़री साँसें लीं. ७ जून २००७ को रामेश्वरम इस
दुनिया से चुपचाप चले गए. उनके कई क़रीबी लोगों को भी
रामेश्वरम के चले जाने का पता नहीं चला था. इस वर्ष जून महीने में उनको गए
पांच वर्ष हो जायेंगे. पलामू फिर एक बदहाली के दौर से गुजर रहा है. अपनी आवाज तलाश
रहा है जो गत ३०-३५ वर्षों से रामेश्वरम के रूप में थी. एक लेख में फैसल अनुराग रामेश्वरम
की वर्त्तमान में प्रासंगिकता पर लिखते हैं कि इनके विरासत को आगे बढ़ाने की जरूरत
है क्योंकि पलामू की बेड़ियाँ अभी पूरी तरह से टूटी नहीं हैं तथा नवसामंतवाद अपना
पैर भी पसार रहा है. ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में पत्रकार नहीं हैं पर किसी में
पलामू और उनके लोगों के प्रति वो आदर और निष्ठा नहीं दिखती जो रामेश्वरम में थी.
रामेश्वरम का जन्म पलामू के हरिहरगंज में ६
दिसंबर १९३६ को एक नमक व्यवसायी के यहाँ हुआ था. इनका वास्तविक नाम रमेश कुमार
गुप्त था जिसको बाद में उन्होंने रामेश्वरम कर लिया. कारण स्पष्ट था कि इनके आचरण
से इनका जातिसूचक नाम मेल नहीं खाता था. साधारण चेहरा, लंबा कद, इकहरा साँवला शरीर
और आँखों में चश्मा और असाधारण व्यक्तित्व ही रामेश्वरम की पहचान थी.
“क्रांति कुटीर” - डाल्टनगंज के इनके निवास का पता
सभी को मालूम था - “क्रांति कुटीर”, शिवाजी मैदान के कोने का तिराहा, डाल्टनगंज .
महाश्वेता देवी ने अपने पलामू पर केद्रित उपन्यास “भूख” (राधाकृष्ण प्रकाशन, १९९८)
के आरंभिक हिस्सों में लिखा है -”... रामाश्रय शिवाजी मैदान में रहता है. वह
पत्रकार है.” महाश्वेता देवी रचित यह पात्र रामाश्रय, पत्रकार रामेश्वरम ही थे, जो
कोयल नदी के किनारे शिवाजी मैदान के पास रहा करते थे. यह क्रांति कुटीर पत्रकारों,
लेखकों, कलाकारों, स्वतंत्रता सेनानियों और बुद्धिजीवियों के आकर्षण का केंद्र रहा
है. यहाँ अनेक ख्यातिप्राप्त हस्तियाँ जिनमें अज्ञेय, महाश्वेता देवी, अग्निवेश,
कैलाश सत्यार्थी, गोपाल सिंह नेपाली, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, शिवपूजन सहाय, भीष्म
साहनी, नलिन विलोचन शर्मा, रामवृक्ष बेनीपुरी, राजनारायण, शैवाल, डा० खगेन्द्र
ठाकुर आदि पलामू के अपने कार्यक्रम, शोध और प्रवास पर आते रहे हैं. यहाँ पर ही
अनेक प्रतिभाओं ने आकार पाया है और अपने –अपने क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की है.
इनकी पत्नी उर्मिला भारती को महाश्वेता देवी मदर इण्डिया, क्रांति कुटीर की
अन्नपूर्णा आदि नामों से संबोधित करती थीं.
महाश्वेता देवी ने रविवार एक अंक में
रामेश्वरम पर एक कवर स्टोरी लिखी थी. रामेश्वरम के संपर्क में आने के बाद क्रांति
कुटीर ही उनका पलामू का पता था. जब- जब वह अपनी लेखकीय योजना के तहत पलामू आतीं थी
तो यही ठहरती थी. सुदूर क्षेत्रों में उनके साथ जाने वालों में रामेश्वरम की उपस्थिति
अनिवार्य रहती थी. वो लिखती हैं कि –“ भारत का आईना है पलामू, और पलामू का आईना है
रामेश्वरम. मुझे उनपर गर्व है. देश में बंधुआ मुक्ति आंदोलन के जन्मदाता रामेश्वरम
हैं. उन्होंने ही इस आंदोलन में मुझे, स्वामी अग्निवेश और कैलाश सत्यार्थी को
शामिल किया था. पलामू के सन्दर्भ में महाश्वेता देवी के उपन्यास, कहानी संग्रह एवं
निबंध संग्रह की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. उन्होंने इनमें पलामू के प्रायः
हर प्रसंग में रामेश्वरम के बारे में चर्चा की है. वे लिखती हैं कि – ”रामेश्वरम
पलामू के बारे में तथ्य और आंकड़े एकत्रित करते हैं, कई सौ मील पैदल चलकर बंधुआ
मजदूरों के गाँवों में जाते हैं और अपने से अधिक गजब के अपने परिवार जनों एवं
निष्ठावान दोस्तों की सहायता से उन बाहर के लोगों की मेहमानदारी करते हैं, जो असली
पलामू को जानने की उत्सुकता लिए आते हैं. पश्चिम बंगाल के तथाकथित राजनीतिक
परिवारों में भी उपदेश और आचरण का ऐसा मेल मैं नहीं पाती, जैसा रामेश्वरम के
परिवार में पाती हूँ. साँवला, शक्ल से ईमानदार और खैनी खाने वाला यह आदमी ठीक है.”
(रविवार, १९ जुलाई १९८३). मैं रामेश्वरम को १९८१ से जानती हूँ. मुझे उनपर पूरा
विश्वास है. रामेश्वरम ने ही मुझे बिहार के पलामू में बुलाया था. मैं रामेश्वरम के
साथ पलामू के पहाड़, पठार, जंगल व घाटी के आदिवासी क्षेत्रों में कई बार घूमी हूँ.
मैं रामेश्वरम की आभारी हूँ. (विज्ञान सभागार, नई दिल्ली, ८ मार्च १९९७. नेल्सन
मंडेला द्वारा ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका के भाषण का अंश).
(अगले अंक में जारी)
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