
मंदिर के प्रस्तर लेख और उसके पुजारी स्व० सिद्देश्वर तिवारी
के द्वारा लिखित इतिहास के अनुसार सम्वत १८८५ में नगर उंटारी के महाराज भवानी सिंह
की विधवा रानी शिवमानी कुवंर ने लगभग बीस किलोमीटर दूर शिवपहरी पहाड़ी में दबी पड़ी
इस कृष्ण प्रतिमा के बारे में स्वप्न देख कर जाना. रानी शिवमानी कुँवर कृष्ण भक्त,धर्मपरायण,
और भगवत भक्ति में पूर्ण निष्ठावान थीं. साथ ही वे राज काज का संचालन भी कर रही
थीं. बताया जाता है कि एक बार जन्माष्टमी व्रत धारण किये रानी साहिबा को मध्य
रात्रि में स्वप्न में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन हुआ था. स्वप्न में ही श्री कृष्ण
ने रानी से वर मांगने को कहा. रानी ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु आपकी सदैव
कृपा हम पर बनी रहे. तब श्री कृष्ण ने कहा कि कनहर नदी के किनारे शिवपहरी पहाड़ी
में उनकी प्रतिमा गड़ी है. तुम आकर मुझे यहाँ से मुझे अपनी राजधानी में ले जाओ. साथ
ही उन्हें सपने में वंशीधर श्रीकृष्ण की इस प्रतिमा के दर्शन भी हुए. भगवत कृपा
जानकर रानी ने अगले दिन सुबह यह बात राज परिवार के लोगों को बताई. रानी की भक्ति
पर लोगों को विश्वास था. राज परिवार ने एक सेना प्रतिमा को खोजने के लिए भेज दी.
रानी भी उस सेना के साथ-साथ गयी थीं. विधिवत पूजा अर्चना के बाद रानी
की सेना ने शिवपहरी पहाड़ी में रानी के कहे अनुसार खुदाई की तो श्री वंशीधर श्रीकृष्ण
की अद्वितीय प्रतिमा मिली. जिसे हाथियों पर बैठाकर नगर उंटारी लाया गया. रानी इस
प्रतिमा को अपने गढ़ में स्थापित कराना चाहती थीं. परन्तु नगर उंटारी गढ़ के मुख्य
द्वार पर अंतिम हाथी बैठ गया. लाख प्रयत्न के बावजूद हाथी नहीं उठने पर रानी ने
राजपुरोहितों से मशविरा कर वहीँ पर मंदिर का निर्माण कराया. प्रतिमा केवल बंशीधर
श्रीकृष्ण की ही थी. इसलिए बनारस से श्री राधा-रानी की अष्टधातु की प्रतिमा बनवाकर
मंगाया गया और उसे भी मंदिर में श्रीकृष्ण के साथ स्थापित कराया गया.
इतिहासकार ऐसा अनुमान लगाते हैं कि यह प्रतिमा मराठो के द्वारा बनवाई गई
होगी जिन्होंने वैष्णव धर्म का काफी प्रचार किया था और मूर्तियाँ भी बनवाई थीं. मुगलों
के आक्रमण से बचाने के लिए मराठों ने इसे शिवपहरी पहाड़ी के कंदराओं में छुपा दिया
गया था.
इस मंदिर में १९३० के आस पास एक चोरी भी हुई थी. जिसमें भगवान बंशीधर की
बांसुरी और छत्र चोर चुरा के ले गए थे. जिसे उन्होंने पास के ही बांकी नदी में
छुपा दिया था. चोरी करने वाले अंधे हो गए थे. उन्होंने अपना अपराध स्वीकार कर
लिया. परन्तु चोरी की हुई वस्तुएं बरामद नहीं हो पायीं. बाद में राज परिवार ने
दुबारा स्वर्ण बांसुरी और छतरी बनवा कर मंदिर में लगवाया.
साठ एवं सत्तर के दशक में बिरला ग्रुप ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया
था. आज भी श्री वंशीधर की प्रतिमा कला के दृष्टिकोण से अतिसुन्दर एवं अद्वितीय है.
बिना किसी रसायन के प्रयोग या अन्य पोलिश के प्रतिमा की चमक पूर्ववत है.तो कभी
आइये यहाँ, बंशीधर श्रीकृष्ण की मनोहारी छवि के दर्शन करने.
- नवनीत नीरव -
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