Saturday, April 11, 2015

आज का सिनेमा वास्तविक समस्याओं को नजरंदाज कर रहा है- गिरीश रंजन

(फिल्मकार गिरीश रंजन का निधन ९ नवम्बर २०१४ को हुआ. यह इंटरव्यू सन २०१३ में जून-जुलाई महीने में लिया गया था. यह इंटरव्यू "जनपथ" पत्रिका के जनवरी २०१४ के अंक में प्रकाशित हुआ था. )
गिरीश रंजन जी को श्रद्धांजली.

























( बिहार के पहले फ़िल्मकार हैं गिरीश रंजन. अपने फ़िल्मी कैरियर के शुरुआत में हिंदी और बांग्ला भाषा के कुछ नामचीन फिल्मकारों के साथ काम किया जिनमें सत्यजीत राय, मृणाल सेन, तपन सिन्हा, तरूण मजूमदार, हृषिकेश मुखर्जी, राजेन तरफ़दार आदि. इन्होने १९६४ में बनी मगही भाषा की पहली फिल्म “मोरे मन मितवा” से अपने कैरियर की शुरुआत की. इन्होने हिंदी में कथाकार कमलेश्वर की लिखी फिल्म ‘डाकबंगला’ का निर्माण और निर्देशन किया. बिहार के कलाकारों को लेकर बनी और १९८० में रिलीज फिल्म ‘कल हमारा है’ इनकी चर्चित फिल्मों में से हैं. इन्होने पटना दूरदर्शन के लिए “लोहे के पंख” का निर्माण किया और एक कहानी के लिए बिहार की तीन कहानियों की पटकथा लिखी. बिहार की कला संस्कृति और विरासत पर इन्होने ‘विरासत’ और ‘बिहार इतिहास के पन्नों पर’ और कुछ हिंदी साहित्यकार जैसे फणीश्वर नाथ ‘रेणु’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ आदि पर वृतचित्र बनाये हैं. अस्सी वर्ष की उम्र में आज भी ये फिल्म निर्माण में सक्रिय हैं. इस साल प्रसिद्ध साहित्यकार राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह के उपन्यास ‘सूरदास’ पर इनकी फिल्म ‘अंतर्द्वंद’ फ्लोर पर जा रही है. इनके फ़िल्मी जीवन और बदलते परिवेश में फिल्मों की भूमिका पर इनसे एक लम्बी बातचीत हुई.)     
बिहार राज्य के छोटे से शहर बिहारशरीफ में आपका बचपन गुजरा था. फिल्मों के प्रति आपका रुझान कैसे हुआ? आपने कब सोचा कि फिल्मों में भी कैरियर बनाया जा सकता है?
फिल्म से मेरी रूचि बचपन से ही थी. उसका एक कारण ये था कि मेरे नानाजी की बहन जो विधवा थीं, उस समय भक्तिपूर्ण फिल्में देखती थीं. मैं भी उनके साथ फिल्म देखने टमटम पर बैठकर जाता था. उस समय मेरी उम्र यही कोई दस वर्ष रही होगी.  फिल्मों के दृश्यों को देखकर, कभी आँसू भी आते थे कभी हँसता भी था, कभी नाटकीय दृश्यों को देख कर बड़ा भाव-विभोर हो जाया करता था. इस तरह मेरी फिल्मों से मेरी रूचि सिनेमा देखने के साथ ही शुरू हुई. जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया, मेरी यह रूचि बढ़ती ही गई. मैट्रिक तक आते-आते मैंने यह निश्चित कर लिया था कि मैं फिल्म को ही अपना कैरियर बनाऊंगा. बिहारशरीफ जैसे छोटे शहर में रहने के कारण और बिहार में फिल्म इंडस्ट्री नहीं होने के कारण, मैं फिल्में देखकर उनके तकनीकी पक्ष पर सोचा करता था और उनका तुलनात्मक अध्ययन किया करता था कि फिल्में कैसे बनती होंगी? कैसे फिल्म निर्माण में जाया जाए. एक बात जान कर आपको ताज्जुब होगा कि स्कूल-कॉलेज आयोजित नाटकों में भाग लेता था और सराहा जाता था. मैं अच्छा अभिनय किया करता था. लेकिन मेरी अभिरुचि निर्देशन में ही ज्यादा थी. एक तरह से कहूं तो शुरू से ही निर्देशन के लिए मैं दृढ़संकल्पित था. उन दिनों मैं बहुत सारी फिल्में देखता था और कई बार देखता था. दिलीप साहब मेरे पसंदीदा अभिनेता थे, लेकिन वी० शांताराम, राजकपूर जैसे अभिनेताओं की फिल्में भी देखता था. उस समय बांग्ला फिल्मों को देखने का मौका ही नहीं मिला. मुझे याद है साऊथ की एक फिल्म “संसार” मैंने बाईस बार पटना के अशोक सिनेमा में देखा था. जितनी बार देखता था उतने बार कई सवाल दिमाग में आते थे. ट्रॉली क्या होती है? कैमरा कैसे मूव करता है? आदि. कुछ दिनों के बाद मैं नोट बुक लेकर जाता था. जबकि एडिटिंग का मुझे दूर-दूर तक कोई ज्ञान नहीं था. सिनेमा हॉल में फिल्म देखते हुए उनके शॉटस नोट करता था. फिल्म में कितने शॉट हैं इसको मैं गिनता था. नोट करते करते पता चला कि किसी फिल्म में ८०० शॉट थे किसी में ७५० थे. मेरे चचेरे भाई थे तपेश्वर प्रसाद. वे कलकत्ता में सत्यजीत राय के साथ काम करते थे तथा उन दिनों पाथेर पांचाली में सहायक संपादक भी थे. इन्हें हाल ही में अवार्ड भी मिला पाथेर-पांचाली के पचास वर्ष पूरे होने पर. एक दिन वो पटना आये थे. उनसे मुलाकात होते ही मैंने कहा कि मुझे फिल्मों में काम करना है. मुझे कलकत्ते ले चलिए.
लेकिन उससे पहले की एक घटना के बारे में यहाँ बताना चाहूँगा. हरिदास भट्टाचार्य जो प्रसिद्द बांग्ला अभिनेत्री कानन बाला के पति थे, राजगीर में फिल्म के कुछ सीन शूट करना चाहते थे. उस समय शरत बाबू के उपन्यास “श्रीकांत” पर इसी नाम की बांग्ला बना रहे थे, जिसमें उत्तम कुमार, सुचित्रा सेन अभिनय कर रहे थे. तपेश्वर भैया शूटिंग से पहले निरीक्षण करने बिहार आये थे. उन्होंने ने शूटिंग की तैयारियों के सिलसिले में मुझसे बात की क्योंकि मैं बिहारशरीफ का रहने वाला था. उन्होंने लोकेशन पर रहने की व्यवस्था, कुछ सामान आदि की व्यवस्था करने को कहा. साथ ही मुझसे यह पूछा कि- यहाँ हाथी कहाँ मिलेगा? मैं नालंदा कॉलेज का विद्यार्थी था. मेरे कई दोस्त ऐसे थे जिनके पास हाथी थे उन दिनों. मैंने कहा कि मिल जायेंगे. उस दिन तपेश्वर भैया ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही कि- देखो, हाँ तो कह रहे हो. लेकिन काम हो जाना चाहिए नहीं तो हमारा हजारों का नुकसान हो जायेगा. मैंने उनकी इस बात गाँठ बाँध ली. अपने तीन-चार दोस्तों को हाथी ले आने के लिए कह दिया. मैंने सोचा चार हाथियों में से एक तो पहुँच ही जायेगा. मुझे भय हो गया था कि सिर्फ एक को कह दूं और हाथी शूटिंग लोकेशन पर न पहुंचे तो मेरी बेइज्जती होगी और नुकसान होगा सो अलग. यूनिट के सदस्यों के लिए राजगीर का सर्किट हॉउस बुक करा दिया जो उस समय नया-नया बना हुआ था. जब हरिदास भट्टाचार्या आये तो उन्होंने देखा कि चार-चार हाथी आये हुए हैं. उन्होंने मुझे बुलवाया और कहा- भाई, एक हाथी के लिए बोला था. ये चार-चार हाथी क्यों ले आये. एक को छोड़ कर बाकि को वापस भेज दो. मैंने उनसे कहा कि रहने दीजिये न. उन्होंने कहा- ‘हाथी और उनके महावतों को खिलाने से खर्च बढ़ जायेगा कि नहीं’. उस दिन मुझे ये मालूम हुआ कि प्रोडक्शन का खर्च कितना अहम् होता है. मैंने बाकि हाथी वालों को ले देकर विदा किया. उसी फिल्म में मुझे एक साधू का छोटा सा रोल दिया गया. शूटिंग के बाद मैंने हरिदास भट्टाचार्या को कहा कि मैं भी फिल्म निर्माण के लिए काम करना चाहता हूँ. उन्होंने कहा -ठीक है, ग्रेजुएशन कर लो, फिर कलकत्ते आ जाना. हरिदास भट्टाचार्या आर्मी से थे. नौकरी समाप्त होने के बाद उन्होंने फिल्म निर्माण में हाथ आजमाया था. उन दिनों कानन बाला न्यू थियेटर स्टूडियो से जुड़े हुई थीं. यह तक़रीबन १९५५-५६ की बात है. यह फिल्मों से मेरा पहला परिचय था.
बांग्ला फिल्मों में आपकी अभिरुचि कैसे बढ़ी ? कलकत्ता में बांग्ला फिल्मों के निर्माण से आप कैसे जुड़े ? कृपया विस्तार से इसके बारे में बताएं.
मैंने पाथेर पांचाली देखने से पहले सिर्फ एक फिल्म देखी थी- ऋत्विक घटक की “आजन्त्रिक”, जिसमें एक टैक्सी ड्राइवर की टैक्सी ख़राब होने पर उसे कबाड़ी के भाव से बेचे जाने की कहानी थी. इस फिल्म को मैंने अपने एक दोस्त के रिक्वेस्ट पर देखा था पटना के अशोक सिनेमा में रविवार को मॉर्निग शो में. उन दिनों रविवार के मॉर्निग शो में बांग्ला फिल्में रिलीज होती थीं. दूसरी फिल्म पाथेर-पांचाली थी, जिसे मैंने ‘रूपक सिनेमा’ में देखी थी. यह  फिल्म काफी चर्चित हुई थी उन दिनों. काफ़ी अवार्ड्स वगैरह भी मिले थे. एक ऐसा सिनेमा जो सच्चाई दिखाता था. हिंदी फिल्मों में यह बात नहीं दिखाई देती थी मुझे. बांग्ला समझने मुझे पहले २० मिनट दिक्कत जरूर आई लेकिन उसके बाद सब कुछ अपने आप समझ में आ रहा था. फिल्म में दुर्गा की मृत्यु के बाद तो मैं रो पड़ा था. मैं ही क्या पूरा सिनेमा हॉल सिसक रहा था. फिल्म ख़त्म होने के बाद मैं काफ़ी देर तक एक चाय की दुकान पर बैठ कर सिगरेट के साथ चाय पीता रहा. काफ़ी देर तक सिनेमा के बारे में सोचता रहा. सोचते- सोचते अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यह वही आदमी हैं (सत्यजीत राय) जिसके साथ मुझे काम करना है. उन दिनों जनता गाड़ी पटना से कलकत्ता जाती थी. दूसरी रात मैं  कलकत्ते पहुँच गया. तपेश्वर भैया ने मुझे टैक्सी से उतरते देखा तो पूछा कि- कैसे आना हुआ? मैंने कहा कि- आपको बताया तो था कि मैं फिल्म ज्वाइन करना चाहता हूँ. मैं सत्यजीत राय के साथ काम करना चाहता हूँ. आप मुझे उनसे मिलवा दीजिये. घर के अन्दर ले जाकर तपेश्वर भैया बहुत गुस्सा हुए. बोले कि- यह पढ़ने की उम्र है और तुम पढाई छोड़ कर चले आये. तुमको और कोई काम करना चाहिए. ये किस चक्कर में पड़े हो? भैया मुझे आठ दिनों तक यही सब समझाते रहे. लेकिन स्टूडियो नहीं ले गए. मेरे चाचा की फैमिली कलकत्ते में ही रहती थी और वे बांग्ला भाषी थे. मैं किसी से बात भी नहीं कर सकता था. कभी भैया से या चाची से बात होती थी. दिन भर घर में खाना खाता और पड़ा रहता. ऐसी स्थिति में मैं बहुत परेशान हो उठता था. कभी- कभी मेरी इच्छा होती कि मैं खुद सत्यजीत राय के सामने जाकर खड़ा हो जाऊं. चाची, यह सब देख रही थीं. एक दिन उन्होंने तपेश्वर भैया को डाँटते हुए कहा कि- इसे स्टूडियो ले क्यों नहीं जाते. भैया बहुत गुस्सा हुए. उन्होंने तमाम तरह की दिक्कतें बताई. चाची ने कहा कि तुम नहीं ले जाना चाहते तो मत ले जाओ. दुलाल को बोल दो वो ले जाएगा. दुलाल दत्त जो उस समय सत्यजीत राय के एडिटर थे और मेरे चाचा के दोस्त थे. हमारे यहाँ आते जाते रहते थे. एक दिन भैया मुझ पर बहुत गुस्सा हुए और कहा- चलो, तैयार हो जाओ. उन्होंने मुझे ले जाकर सत्यजीत राय के सामने खड़ा कर दिया और बांग्ला में कहा- "अमार भाई ! अपने के ज्वाइन करबो."

सत्यजीत राय ने मेरा लम्बा चौड़ा इंटरव्यू लिया. मेरी पढाई से लेकर और कई तरह के प्रश्न पूछा. मसलन- क्या पढ़े हो? एडिटिंग जानते हो? क्या बनना चाहते हो? मैंने बोला कि- निर्देशक बनना चाहता हूँ और आप के साथ काम करना चाहता हूँ. सत्यजीत राय बोले- पहले एडिटिंग सीखो फिर निर्देशन करना. उन्होंने मुझे दुलाल दत्त के साथ काम पर लगा दिया. दुलाल दत्त ने मुझे अगले दिन सुबह आठ बजे बुलाया. आपको जान कर आश्चर्य होगा कि अगले दिन सुबह मैं अपनी बेस्ट ड्रेस सफेद शर्ट और पैंट पहन कर गया था. उस समय “अपूर संसार” फिल्म की एडिटिंग हो रही थी. अपूर संसार, शर्मीला टैगोर, सौमित्र चटर्जी के साथ-साथ मेरी भी पहली फिल्म थी. लेकिन इस फिल्म में मेरा नाम नहीं आया क्योंकि यह लगभग पूरी होने वाली थी तब मैंने इसे ज्वाइन किया. दुलाल दत्त थोड़ी देर स्टूडियो पहुंचे. मैंने उनको नमस्कार किया. उन्होंने चाय मंगाकर पी फिर स्टूडियो से बाहर निकले. उन्होंने कन्हाई- कन्हाई आवाज दी. कन्हाई दौड़ा आया. बांग्ला में उससे कहा कि इसे पोंछा मरवाओ. सत्यजीत बाबू के आने से पहले. कन्हाई ने पोछा मुझे देते हुए कहा कि जल्दी से पोंछा मारो. माणिक दा (सत्यजीत राय) आने वाला है. मैंने पोंछा किया. सत्यजीत राय स्टूडियो आये. मुझे वेल ड्रेस में देखा तो बहुत खुश हुए. गुलाल दत्त ने मुझसे कहा कि यहीं खड़े रहो. जरूरत होगी तो एडिटिंग रूम में बुलाया जायेगा. मैं दिन भर वहीँ खड़ा रहा. कुछ काम मुझसे कराये गए लेकिन एडिटिंग रूम में एंट्री नहीं मिली. मैं बरामदे में खड़ा रहा. इस तरह से मेरा कैरियर शुरू हुआ. कुछ दिन के बाद मुझे एडिटिंग रूप में इंट्री मिल गयी. लेकिन वास्तव में संपादन का काम जो मैंने सीखा वो हृषिकेश मुखर्जी और अरविन्द भट्टाचार्या से. मुझे जो भी काम करने का अवसर मिलता था, मैं उसे फ़ौरन ही करता था. मैं दौड़ कर लेबोरेट्री जाता था और वहां से काम करा कर दौड़ कर ही वापस आता था. हृषिकेश दा उस समय स्टूडियो में आये हुए थे. वे उस समय समरेश बासु के उपन्यास पर बन रही फिल्म ‘गंगा’ के एडिटर थे. जो पिछले दो वर्षों से बन रही थी. राजेन तरफ़दार उसके निर्देशक थे और सलिल चौधरी म्यूजिक डायरेक्टर. बरामदे पर खड़े होकर हृषिदा और अरविन्द दा गंगा के बारे में बात कर रहे थे. मुझे देखकर हृषिदा ने अरविन्द दा से पूछा कि- यह लड़का कौन है, इसे जब भी देखता हूँ, यह दौड़ता ही रहता है. अरविन्द दा ने बताया कि- यह लड़का माणिक दा का असिस्टेंट है. हृषिदा ने मुझे बुलाया- ऐ, इधर आओ. मैं उनके पास पहुंचा. उन्होंने मुझसे पूछा - पहचानते हो मुझको? मैंने कहा- हाँ. उन्होंने आश्चर्य से कहा- अच्छा, कैसे पहचानते हो मुझे? मैं जवाब दिया- एक बार फिल्म फेयर में आपकी तस्वीर छपी थी, देवदास रिलीज होने पर. उन्होंने पूछा- देवदास देखी है कभी? मैंने जवाब दिया- कई बार देखी है. उन्होंने कहा- इतनी अच्छी लगी? मैंने हाँ में अपना सिर हिलाया था. उन्होंने तपाक से पूछा- क्या अच्छा लगा था उसमें? मैंने कहा कि- सबसे अच्छी ये लगी कि जब दिलीप साहब शराब छोड़ने के बाद, रेल के कम्पार्टमेंट में फिर से शराब गटक जाते हैं तो उस समय एक बेलचे से कोयला लेकर बॉयलर में डालने एक सीन आता है. वह कटिंग मुझे बहुत अच्छी लगी थी. हृषिदा बहुत खुश हुए थे. उन्होंने मुझसे कहा- मेरे साथ काम करोगे. मैंने उनसे कहा कि- अभी माणिक दा (सत्यजीत राय) के साथ काम कर रहा हूँ.
इस वाकये के बाद मैं गंगा से जुड़ गया. ‘अपूर संसार’ का काम तब तक समाप्त हो चुका था. गंगा से जुड़ी कई कहानियां हैं. लेकिन एक अच्छी बात ये हुई कि गंगा की एडिटिंग से जुड़ने के बाद मुझे और एडिटिंग करने या पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ी.
इसका मतलब ‘गंगा’ की एडिटिंग के दौरान और हृषिदा के सानिध्य में आपने एडिटिंग का काम सीख लिया था. संपादन यानि फिल्मों की एडिटिंग का कितना महत्व होता है किसी फिल्म किसी फिल्म के निर्माण में ? एक अच्छे एडिटर की क्या विशेषता होती है?
हाँ, गंगा की एडिटिंग के वक्त देर रात तक काम चलता रहता था. जब हृषिदा रात के ढाई-तीन बजे काम से उठते तो सीधे जमीन पर लेट जाया करते थे. तो मैं उनके पीठ वगैरह दबाया करता था. वे बहुत टुकड़े-टुकड़े में बात करते थे. वे कहते थे – देखो गिरीश ! यदि स्क्रिप्ट अगर एडिटेड है तो फिर इतनी मेहनत क्यों. गंगा अस्सी हजार फीट (छप्पन रोल) की फिल्म थी. उनकी एक बात मैं आज भी मन्त्र की तरह याद रखता हूँ- “Don’t edit your film, edit you script”. पचपन-छप्पन रील से काटकर हृषिदा ने उसे चौदह रोल का बना दिया. फ़ाइनल एडिटेड चौदह रील देखकर हम सभी आश्चर्य में थे. गंगा को एडिट करने के बाद हृषिदा ने राजेन तरफ़दार से हाथ मिलाते हुए कहा- राजेन बाबू, जाइए फिल्म सुपर हिट है. गंगा को उस वर्ष सर्वश्रेष्ठ क्षेत्रीय भाषा का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. इस फिल्म की स्क्रिप्ट काफ़ी मोटी थी. राजेन तरफ़दार, सत्यजीत राय की तरह पेंटर थे. दोनों के कम्पोजीशन बेहतरीन होते थे. राजेन दा ने गंगा के कई दृश्य खूबसूरत लोकेशन्स पर फिल्माये थे. कुछ दृश्य सुन्दरवन में बहुत सी नावों और मछुआरों के साथ भी फिल्माया हुआ था. हृषिकेश दा ने सब कुछ काट दिया था एडिटिंग के वक्त. फिल्म एक ऐसी विधा है जिसमें कला की सारी विधाएं एक साथ समाहित होती हैं. संगीत, नृत्य, स्क्रिप्ट आदि. उनमें कम्पोजीशन भी एक अहम विधा है. इसमें डायरेक्टर की भूमिका अहम् होती है. आजकल टीवी पर के सीरियल भी ब्यूटीफुली कम्पोस्ड होते हैं. कहानी की निरन्तरता को साथ रखते हुए आप क्या दिखाना चाहते हैं? कोई दृश्य आपको बोर क्यों करता है? इसे एक पटकथा लेखक अच्छी तरह से समझता है. बाद के वर्षों में हिंदी सिनेमा में सलीम-जावेद बड़ी सूझ-बूझ से एडिटेड पटकथा लिखते थे. जिनपर फिल्में बनी और क्लासिक का दर्जा पायीं. आज भी मुंबई में अच्छे पटकथा लेखक और निर्देशक हैं जिन्होंने अच्छी स्क्रिप्ट लिखी और के अच्छी फिल्म बनाई हैं. जैसे ‘ए वेडनेसडे’ और ‘चक दे‘ इण्डिया का उदाहरण ले सकते हैं. आज के दौर में भी एक साल में कुछ अच्छी फिल्में तो आ ही जाती हैं जिसे आप देख सकते हैं. आज के दौर में कुछ अच्छे निर्देशक हैं जो फिल्म निर्माण में सीरियसली सक्रिय हैं, जो समाज को ध्यान में रखकर फिल्में बना रहे हैं, कुछ हट कर फिल्में बना रहे हैं. मुन्ना भाई एम० बी० बी० एस० से लेकर  पिछले साल धनबाद की पृष्ठभूमि पर आई “ गैंग्स और वासेपुर” इसका एक बढ़िया उदाहरण है, जो निस्संदेह एक अच्छी और प्रशंसनीय फिल्म है. 
आपने सत्यजीत राय के साथ-साथ उस समय के चोटी के फिल्मकारों जैसे तपन सिन्हा, तरून मजूमदार, हृषिकेश मुखर्जी आदि के साथ काम किया. कुछ अच्छी फिल्मों जैसे अपूर संसार, देवी, गंगा, अभिजान, महानगर आदि से सहायक निर्देशक और सहायक संपादक के रूप में जुड़े. ये फिल्में आपको कैसे मिलीं. इसके बारे में बताएं.
बांग्ला फ़िल्मों के लोग पता नहीं क्यों मुझे हद से ज्यादा प्यार करते थे. जब मैं किसी फिल्म में व्यस्त होता था तो लोग मेरे काम समाप्त होने का इंतजार किया करते थे और मेरी अगली फिल्म के संभावनाओं पर विचार किया करते थे. इसी बीच में मैंने कई फिल्में की. जिनमें तपन सिन्हा, तरूण मजूमदार, राजेन तरफ़दार आदि के साथ काम किया. सत्यजीत बाबू की जब अपूर संसार समाप्त होने के बाद मैंने गंगा में भी काम किया. सत्यजीत राय की फिल्म देवी शुरू होने वाली थी तो मैंने उसमें भी काम शुरू कर दिया. संपादन की जो सारी बातें थीं वो मैंने गंगा में ही सीख लिया. देवी में तपेश्वर भैया चीफ असिस्टेंट थे मैं पहली बार फूल फ्लेजेड असिस्टेंट था. मैं गुलाल दत्त के साथ भी संपादन में था. देवी जब ख़त्म हुई थी तब मैंने तरून मजूमदार, तपन सिन्हा आदि की फिल्में की. इस तरह मैंने अन्य प्रसिद्ध बांग्ला निर्देशकों के साथ कई फिल्मों में काम किया. सारी फिल्मों के नाम तो याद नहीं कर पा रहा हूँ. लेकिन उनमें से कुछ फिल्में थीं दिलीप साहब अभिनीत सगीना महतो, सत्यजीत राय की चारुलता, द बिग सिटी, महानगर, अभिजान आदि में मैं असिस्टेंट डायरेक्टर था. मैंने ऋतिक दा के साथ काम नहीं किया. हालाँकि वो मुझे बहुत प्यार करते थे.कई बार एडिटिंग रूम में उनसे मुलाकात होती रहती थी. जब भी मैं उनसे मिलता था तो वे कहते कि इस बार तुम मेरी फिल्म में मेरा असिस्टेंट होगे. मैं उनसे कहता कि- मुझे आपके साथ काम नहीं करना है. वो पूछते – क्यों? मैं बोलता कि आप बहुत गाली बकते हो. इसतरह की बातें उनके और मेरे बीच चलती रहती थी. जब महानगर फिल्म बन रही थी. जिससे जया बच्चन का फिल्मों में पदार्पण हुआ. मैं सत्यजीत बाबू के साथ निर्देशन में लग गया. सत्यजीत बाबू ने मुझे उस फिल्म सहायक निर्देशक के रूप में रखा. उस फिल्म में मैं सहायक संपादक भी था. अभिजान में भी मैं सहायक निर्देशक था.
सत्यजीत राय की ‘अभिजान’ ऐसी फिल्म थी जिससे बिहार की मगही भाषा को पहली बार सिने पटल पर जगह मिली थी. यह कैसे मुमकिन हो पाया.
सत्यजीत बाबू से मेरी बात फिल्म में मगही भाषा को लेकर हुई थी. लेकिन मगही बांग्ला की  तरह कैसे हो सकती है? ‘घडका लगा देबो’ और ‘घडका लगिए देबो’ में क्या फर्क है जो संवाद नायिका फिल्म में दरवाज़ा बंद करते हुए पूछती है. सत्यजीत बाबू ने पहला संवाद सुनते ही कहा कि तुम तो कुछ जानते ही नहीं हो मगही के बारे में. मैंने उनसे कहा कि मगही तो मेरी मातृभाषा है. उन्होंने ने पूछा कि- बिहार के किस इलाके से आते हो तुम. सुना है कि वहां मैथिली है, मगही भी है, भोजपुरी है. मैंने कहा कि मैं मगही क्षेत्र से आता हूँ. उन्होंने आश्चर्य से कहा- मगध से....द ग्रेट मगध. मैंने कहा- हाँ. उन्होंने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि सारी भाषाओँ में इतनी समानता हो. मैंने उनसे कहा- माणिक दा, बांग्ला, मगही, मैथिली ये तीनों सिस्टर्स लैंग्वेज कहलाते हैं जहाँ तक मैंने पढ़ा है. ये समानता उसी के वजह से है. इसके बाद परदे पर वहीदा रहमान के संवाद मगही में मैंने लिखे. फिल्म रिलीज होने के बाद अख़बारों में चार लाइंस मेरे बारे में भी अलग से लिखा गया कि- गिरीश ने इस फिल्म में अच्छा काम किया है. बंगाली दर्शक को भी फिल्म के संवाद समझ में आये.
१९६४ में आई फिल्म “मोरे मन मितवा” मगही की पहली फिल्म थी जिसका निर्देशन आपने किया था. मगही भाषा में फिल्म बनाने का विचार कैसे आया और यह कैसे संभव हो पाया.  
मोरे मितवा के बनने की कहानी कुछ अजीब है. उन दिनों भोजपुरी की फिल्म “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो” काफ़ी हिट हो चुकी थी. जिसके बाद मुझे लगा कि मगही में भी फिल्म बनाई जा सकती है. उन दिनों चारूलता की शूटिंग उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश की सीमा पर गोपालपुर सी-बीच पर हो रही थी. रात में यूनिट के लोग एक साथ बैठ कर गप्पे लड़ाते थे. विमल डे, जो आर० डी० बंसल के सहयोगी थे. आर० डी० बंसल उन दिनों सत्यजीत राय की फिल्में प्रोड्यूस करते थे. ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ सुपर हिट हो चुकी थी. रात को बातचीत के क्रम में विमल डे ने कहा कि- गिरीश तुम भी कोई फिल्म बनाओ. मैंने कहा – हां मैं सोच रहा हूँ. विमल डे ने कहा - कोई कहानी है क्या तुम्हारे पास? मैंने एक फ़िल्मी कहानी लिख रखी थी. मैंने वहीँ डायनिंग टेबल पर बैठ कर सभी लोगों को अपनी कहानी सुनाई. बीच-बीच में जो लोकगीत लिखे गए थे उनको भी फिल्म के सीन के साथ गा गाकर सुनाया. कहानी ख़त्म होने पर सभी लोगों ने तालियाँ बजायीं. उनको लग रहा था कि गिरीश को बेवकूफ बनाया जा रहा है. आर० डी० बंसल क्यों फिल्म बनायेंगे गिरीश के साथ. बात आयी गयी हो गई. अगले दिन मैं चारूलता की शूटिंग में व्यस्त हो गया. शूटिंग ख़त्म होने के बाद हम कलकत्ते आ गए और एडिटिंग में व्यस्त हो गए. निगेटिव डेवेलप कराना, प्रिंट कराना आदि में व्यस्त हो गया. एक दिन मैं एडिटिंग रूम में बैठ हुआ था. इसी बीच विमल डे का उस दिन फोन आया था. वहीँ लम्बे कॉरिडोर में एक फ़ोन था. उन्होंने पूछा- क्या कर रहे हो? मैंने कहा- एडिटिंग टीम में हूँ चारूलता के. माणिक दा (सत्यजीत राय) वहीँ बैठे हुए थे.उन्होंने भी मुझसे कहा कि तुमको विमल दा बुला रहे हैं, तुम चले जाओ. मैं विमल डे से मिलने गया. उन्होंने मुझसे कहा कि- उस दिन जो कहानी तुमने सुनाई थी, उसे आर०डी० बंसल को सुनाओ. मुझे बड़ा अजीब लग रहा था. ये क्या बात हो गयी थी. मैं बस से गया था और बस से ही वापस लौट आया. मैंने अगले दिन सुबह नौ बजे आर०डी० बंसल साहब को कहानी सुनाई. उन्हें कहानी पसंद आयी. उन्होंने पूछा- इसकी पटकथा लिखे हो? मैंने कहा- जी, नहीं. उन्होंने बड़े गंभीर स्वर में कहा- ठीक है, शाम को ऑफिस से आने के बाद यहाँ आकर अपने एडवांस ले जाओ और पटकथा लिखो. मुझे बहुत ख़ुशी हो रही थी. शाम को पटकथा के लिए एडवांस लेकर मैं पूर्णिया चला गया. वहां मेरे एक ममेरे भाई रहते थे जो जिला स्कूल में टीचर थे. वे बड़ी अच्छी मगही की कहानियां लिखते थे. जाड़े के दिन थे. मैंने  उनके साथ बैठ कर पूरी पटकथा और संवाद लिख दिया और वापस लौट आया. बंसल साहब से जब मिला तो उन्होंने कहा कि- तुम गए नहीं अभी तक. उनको लगा कि मै लिखने के लिए दार्जिलिंग या फिर कोई पहाड़ी एरिया में जाऊंगा. मैंने अपनी पटकथा और संवाद उन्हें दिखाया. उसके बाद मोरे मन मितवा की योजना बनाने लगी. गीतकार के लिए हरिश्चंद्र प्रियदर्शी जी से संपर्क किया. मेरी साहित्य के प्रति रूचि उन्होंने ही जगाई थी. धुनें मेरे दोस्त नन्द किशोर प्रसाद ‘लल्लन’ ने तैयार की. संगीत दत्ताराम ने दिया जो उन दिनों शंकर जयकिशन के असिस्टेंट थे. नाज, सुजीत कुमार, सुदीप आदि से बात हुई और इस तरह से यूनिट बनी. फिल्म बन गई. फिल्म रिलीज हुई. रिलीज के समय एक समस्या यह हुई कि मगही भाषा की फिल्म बनारस में रिलीज कर दी गई. लोगों को भाषा ही समझ में नहीं आई. नतीजतन फिल्म फ्लॉप हो गई. बाद में इसे बिहार के अन्य भागों में रिलीज किया गया. फिल्म ने अच्छी कमाई की. उनके पैसे निकल गए थे.
अपनी फिल्म ‘डाकबंगला’ के बारे में कुछ बताएं. कमलेश्वर जी ने इस फिल्म की कहानी लिखी थी. हृषिकेश मुखर्जी फिल्म के एडिटर थे. कैसे बनी ये फिल्म. इसके बारे में विस्तार से बताएं.
कमलेश्वर जी की कहानियां मैं पढता रहता था. जब सगीना महतो हिंदी में बनने लगी तो मैं बम्बई चला गया. इसी बीच मैंने कमलेश्वर जी के उपन्यास डाकबंगला की पटकथा लिख डाली. तब तक समानांतर फिल्मों का युग शुरू हो गया था. डाकबंगला की कहानी मुझे काफ़ी अच्छी लगी थी. फिल्म के अधिकार के सिलसिले में मैं कमलेश्वर जी से मिला. कमलेश्वर जी भूल ही चुके थे कि उन्होंने कोई डाकबंगला उपन्यास लिखा है. काश्मीर में उन्हें २०० रुपये की जरूरत थी. इसलिए उन्होंने इसे लिख दिया था. कमलेश्वर जी के साथ एक बात थी जब वे लिखने बैठते थे तो एक ही सिटिंग में वो पूरा उपन्यास लिख देते थे. मैं जब उन्हें डाकबंगला की कहानी सुनाता तो उन्हें याद ही नहीं था. उन्होंने अपने फ्रेंड सर्किल से किसी तरह डाकबंगला उपन्यास की एक प्रति मंगाई और उसे फिर से पढ़ा. मैंने उनसे कहा कि मैं इस पर फिल्म बनाना चाहता हूँ और इसके अधिकार चाहता हूँ. फिल्म फायनांस कारपोरेशन, जो अभी एन० एफ़० बी० सी० कहलाता है, में एप्लाय कर दिया. करंजिया साहब उसके अध्यक्ष थे जो फिल्म फेयर के एडिटर भी थे. उस समय कमलेश्वर जी सारिका के सम्पादक थे. दोनों टाइम्स ऑफ इण्डिया बिल्डिंग के सामने की बिल्डिंग में रहते थे. सबके आपसी बातचीत से हमारी फिल्म सैंक्सन हो गई. हृषिकेश मुखर्जी भी साथ में थे. उन्होंने फिल्म की एडिटिंग की जिम्मेदारी ली थी. नरीमन ईरानी, जिन्होंने अमिताभ बच्चन के साथ डॉन बनाई थी, वो फिल्म के कैमरामैन थे. नरीमन ईरानी मनोज कुमार की सारी फिल्मों के कैमरा मैन थे. मेरे फिल्म में नरीमन ईरानी कैमरा मैन कैसे बने इसकी भी एक कहानी है. तपन दा नरीमन ईरानी की के फिल्म के निर्देशक थे. तपन दा की पूरी यूनिट थी उसमें. मैं तो सगीना महतो में था उस समय. तपन दा चाहते थे कि गिरीश को भी रोज १००- २०० रूपए मिल जाएँ. ये उनकी अपनी इच्छा थी. इसलिए उन्होंने मुझे वहां बुला लिया था. मुंबई की फिल्मों में उस समय कन्वेयेंस मनी और लंच मनी दिया जाता था. जब पैक अप हुआ तो सभी को पैसे दिए जाने लगे. नरीमन ईरानी ने मुझे भी बुलाया. कहा कि वाउचर पर साइन कर दो. मैंने कहा कि ये किस बात के लिए. मैं तो तपन दा के साथ आता जाता हूँ तो मुझे क्न्वेयेंस मनी किस लिए. और लंच तो मैंने यहीं स्टूडियो में कर लिया तो फिर लंच मनी भी मैं नहीं लूँगा. नरीमन ईरानी एक पारसी थे. मुझसे बहुत प्रभावित हुए थे. जब मेरी फिल्म डाकबंगला अप्रूवल में आ रही थी तो मैंने उनसे कहा कि आप मेरी फिल्म के लिए काम करें. उन्होंने हाँ कर दी. डाकबंगला में मैंने अभिनेत्री के लिए सबसे पहले शर्मिला टैगोर से बातचीत की. सत्यजीत राय की फिल्मों अपूर संसार और देवी में शर्मीला टैगोर ने काम किया था इसलिए मुझसे उसकी जान पहचान थी. हम सब उसे रिंकू कहा करते थे. उसने भी मुझे हाँ कर दिया. मैं बहुत खुश था कि मेरी फिल्म में हृषिकेश मुखर्जी,नरीमन ईरानी और शर्मीला टैगोर जैसे लोग हैं. इसी बीच एक दिन मेरी मुलाकात मेरे दोस्त एस० एस० ब्रोका से हुई. उसने मेरी फिल्म के बारे में मुझसे पूछा. मैंने उसे वर्तमान स्थिति से अवगत कराया. हृषिकेश दा के बारे में तो उसने कुछ नहीं कहा क्योंकि वो जानता था कि मैं उनका असिस्टेंट था. शर्मीला टैगोर का नाम सुनते ही मुझसे कहा कि- उसका रेट तुम जानते हो. उससे पूछ लेना. शर्मीला उन दिनों आठ से नौ लाख लेती थीं. नरीमन ईरानी के बारे में उसने बताया कि वो भी सवा लाख लेते हैं एक फिल्म के लिए. मैं बड़ा परेशान हुआ. मैंने सोचा कि सबसे पहले नरीमन ईरानी से ही बातचीत की जाए. नरीमन ईरानी उस समय आर० के० स्टूडियो में रोटी कपड़ा मकान के लिए शूट कर रहे थे. मुझे उन्होंने आया देखा तो समझा कि शायद पैसे-वैसे के लिए आया है. उन्होंने मुझे बैठने का इशारा किया. शाम को शूटिंग जब पैक-अप हो गई तो मैं उनके साथ हो लिया. उनके गाड़ी में बैठकर मैं वापस लौटने लगा. रास्ते में मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि उनसे कैसे पूछूं कि कितना लेंगे वो मेरी फिल्म के लिए. मैंने हिम्मत करके उनसे पूछा कि- बाबा, आप कितना पैसा लेंगे मेरी फिल्म के लिए. उन्होंने कहा- एक रूपये लूँगा मुन्ने. वास्तव में उन्होंने फिल्म के लिए एक रुपया ही लिया. शूटिंग के दौरान मैं उनके लिए पान लेकर जाया करता था. पान उनके कैमरे के स्टैंड पर रखा होता था. तीसरे दिन ही उन्होंने मुझे टोकते हुए कहा कि पैसे ज्यादा हो गए हैं क्या? कल से पान लाने की जरूरत नहीं है. इस तरह नरीमन ईरानी डाकबंगला के कैमरामैन बने.
इसके बाद मैं रिंकू (शर्मिला टैगोर) के पास पहुंचा. पूछा कि मेरी फिल्म में काम करने के लिए कितना लेंगी? उसने मुझे बड़े गौर से देखा. पूछा – फिल्म के निर्माण के लिए कितने पैसे मिले हैं? मैंने कहा- साढ़े तीन लाख. मुझे खबर कर देना. तो मुझे क्या दोगे? शर्मीला ने पूछा. मैं चुप था. उसने कहा कि- जाओ शूटिंग की तयारी करो. मैंने शूटिंग की तयारी शुरू कर दी. संयोग से मेरा दोस्त ब्रोका फिर एक दिन मिल गया. मैंने उसपर लगभग बिगड़ते हुए कहा कि- शर्मीला ने कहा कि वो पैसे नहीं लेगी? ब्रोका ने कहा- बम्बई को तुम अभी नहीं जानते हो दोस्त. वो पैसे नहीं लेगी. अभी शर्मीला का लड़का हुआ है (सैफ अली खान). सेट पर शर्मिला के साथ-साथ, सैफ की आया भी जाएगी, कभी मन हुआ तो नवाब पटौदी भी सेट पर चले जायेंगे घूमने के लिए. इनके लिए टिकट और आउटडोर सेट पर सारी व्यवस्था करनी होगी. तुम तो मर गए बेटा. ब्रोका की बात सुनकर मैं डर गया. बाद में मैंने सिम्मी ग्रेवाल का नाम फ़ाइनल किया. उन्हें कहानी सुनाई. उन्होंने हाँ कर दिया. इस तरह फिल्म की हिरोइन बनी सिम्मी ग्रेवाल. फिल्म १९७५ में कलकता और बम्बई मेट्रो में रिलीज हुई. लेकिन फिल्म बिजनेस नहीं कर पायी. अख़बारों और पत्रिकाओं में अच्छे रिव्यू भी आये. पत्रकारों ने लिखा कि गिरीश ने दस साल पहले ही फिल्म बना दिया है.
आपकी सबसे चर्चित और हिट फिल्म रही ‘कल हमारा है (१९८१)’ . बिहार के कलाकारों और तकनीशियनों को लेकर बनी यह फिल्म काफ़ी चर्चित हुई थी. यह फिल्म कैसे बनी?   
डाकबंगला फिल्म नहीं चलने के बाद मैं धर्मयुग और माधुरी जैसी पत्रिकाओं के लिए लिखने लगा था. हालाँकि मैं इनके लिए पहले से भी लिखता था. एक दिन अरविन्द जी जो माधुरी के संपादक ने मुझसे पूछा कि अब क्या करना है? तब तक मेरे दिमाग में एक बात आती थी कि हर साल  ३०-४० बांग्ला फिल्में बनती हैं, हिट होती हैं, फ्लॉप होती हैं. लेकिन इनके पास मार्केट कहाँ है? इनके पास तो शहर ही नहीं हैं. एक बात मेरे दिमाग में बैठ गई कि अगर फिल्म बिहार में बने, बिहारी फिल्म बने और थोड़ी अच्छी हो तो चलेगी जरूर. इस आयडिया को लेकर मैं बिहार आया. फिल्म कॉपरेटिव बनाया. कुछ लोगों को अपना आयडिया बताया. ठाकुर प्रसाद (रविशंकर प्रसाद के पिता जी) उस समय उद्योग मंत्री थे. मैं उनसे मिला. उनके सामने कुछ प्रस्ताव रखा गया. बिहार में पहली बार फिल्म बनाने की बात हो रही थी. उन्होंने कहा कि बिहार में कैसे फिल्म बनेगी? मैंने कहा कि फिल्म तो कहीं भी बन सकती है. बिहार में भी बन जाएगी. कैमरा भी आएगा. कलाकार बिहार के, तकनीशियन बिहार के. उन्होंने कहा कि आप मुझसे क्या चाहते हैं. मेरे साथ तीन-चार लोग और थे. हमने कहा कि आपकी मदद चहिये. उन्होंने कहा कि सचिवालय आकर मुझसे मिलिए. उन्होंने अपने सेक्रेटरी को बुलवाया. आर० के० सिन्हा० सेक्रेट्री थे. उनसे कहा कि देखिये ये लोग फिल्म बनाना चाहते हैं. उनको हमने अपने आयडिया के बारे में बताया. वो मान गए. उन्होंने स्टेट बैंक के एक मैनेजर को फोन कर दिया. मुत्तुस्वामी बैंक मैनेजर थे. काफ़ी हंसमुख और मिलनसार. मैंने उन्हें सारी बातें बतायीं. उन्होंने कहा कि- पहले एक गाना रिकार्ड करा कर लाइए. तब पैसे सैंक्शन होंगे. हमने कॉपरेटिव तो बना लिया लेकिन पैसे नहीं थे. हम सभी बुद्धदेव बाबू (अभिनेता कुणाल के पिता) के पास पहुंचे. उनको सारी बातें बताई. उन्होंने कुछ पैसे दिला दिए और कहा कि ये पैसे वापस करने हैं. हमलोग बम्बई गए वहां श्याम शर्मा से मिले. उस समय मुझे लक्ष्मण शाहाबादी की याद आई. वो मेरे अच्छे मित्रों में से थे. लक्ष्मण शाहाबादी उस समय सासाराम में पदस्थापित थे. मैं उनसे सासाराम में ही जाकर मिला. तीन दिनों के बाद वो पटना आये. उन्होंने ही फिल्म के गाने लिखे और धुनें भी बनाई थीं. गाने काफी हिट हुए थे. पटना में गंगा नदी के किनारे बैठकर हमने सारे गीत सिगरेट की डिब्बी बजाते हुए फ़ाइनल किया. फिल्म बनाने की कहानी बड़ी विचित्र थी. किसी को कुछ भी मालूम नहीं था. लोकेशन के लिए कहा जाता तो लोग हाँ-हाँ कर देते थे.लेकिन बात नहीं बन पा रही थी. अंत में हमने औरंगाबाद जिले के देव के पास के लोकेशन को फाइनल किया. साहित्यकार शंकर दयाल सिंह के घर, लाइब्रेरी और गेस्ट हॉउस से हमें काफी सहयोग मिला. फिल्म की शूटिंग वहीँ हुई. फिल्म बन कर तैयार हो गयी. लेकिन इसे खरीदने वाला कोई नहीं था. कुणाल, आरती भट्टचार्य,प्यारे मोहन सहाय आदि को कौन देखने जाएगा? एक बड़ी समस्या हमारे सामने थी. इससे पहले बुद्धदेव बाबू ने एलिफिस्टन के मालिक को बुलाया और इसे रिलीज करने के लिए कहा. एलिफिस्टन के मालिक घबराये क्योंकि इससे पहले एक फिल्म बहुत बुरी तरह पिटी थी. उन्होंने कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई. लेकिन उनके बेटे ने फिल्म देखने के बाद इसे रिलीज करने का फैसला किया. अशोक जैन को उन्होंने इसे रिलीज करने के लिए कहा. इस तरह फिल्म रिलीज हुई. मोना सिनेमा में इसका प्रदर्शन हुआ. मेरी हिम्मत नहीं थी कि मैं दर्शकों के साथ बैठकर फिल्म देखूँ. दर्शकों का बहुत अच्छा रिस्पोंस मिला. पहली बार पटनिया भाषा का प्रयोग हुआ था. फिल्म २७ सप्ताह तक  एलिफिस्टन में लगी रही.

बिहार में ‘कल हमारा है’ जैसे सफल फिल्म बनने के बाद और कोई दूसरी फिल्म ‘जिसे बिहार की फिल्म कहा जाए’ क्यों नहीं बनी ?
कल हमारा है कोई क्लासिक फिल्म नहीं थी लेकिन सफल हुई. लोग शान से कहते थे कि यह बिहार की फिल्म है. इस तरह का ओपिनियन ग्रो करता रहा उस फिल्म के साथ. लेकिन उसके बाद बिहारियों ने बिहार की फिल्म बनाने की बात नहीं की. यह स्थिति आज भी यथावत है. बिहार एक मार्केट बन कर रह गया है, बिहार फिल्म उद्योग नहीं है. बिहार का जो पैसा लगता है वह मुंबई चला जाता है. आज की भोजपुरी फिल्में इतनी बकवास बनती हैं कि उनमें बिहार कहीं नजर ही नहीं आता. बिहार में फिल्म उद्योग की बात ही नहीं हो रही है. फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन भी कुछ करने में सफल नहीं दिखता है. बिहार के फिल्मकारों में एकमात्र सफल फिल्मकार प्रकाश झा ही हैं. दामुल उनकी सबसे अच्छी फिल्म थी जिसने बिहार की समस्या को बड़े अच्छे ढंग से उठाया था.
आपकी एक और फिल्म थी ‘कोई भी अपना होता’ जो १९८४ में बनी थी. उस फिल्म के बारे में कुछ बताएं.    
अवध नारायण मुद्गल की कहानी पर आधारित इस फिल्म के प्रोड्यूसर दिल्ली के एक गुप्ता जी थे. फिल्म निर्माण का कोई अनुभव नहीं था लेकिन वो फिल्म बनाना चाहते थे. उन्होंने पटना में मुझसे सम्पर्क किया और फिल्म बनाने का प्रस्ताव दिया. मैंने इसे भी बिहार के कलाकारों को लेकर ही बनाया था. उन्ही दिनों गुप्ता जी की एक और फिल्म को लेख टंडन ने डायरेक्ट किया था जिसमें शबाना आजमी जैसे कलाकार थे. वह फिल्म बेहद फ्लॉप रही थी. इतनी बड़ी फिल्म फ्लॉप करने के बाद गुप्ता जी ने मेरी फिल्म को सेंसर करने के बावजूद रिलीज नहीं की. यह फिल्म दूरदर्शन पर दिखाई गई थी. गुप्ता जी ने कहा कि उसी से उनके पैसे निकल गए थे.
बिहार फिल्म निर्माण को लेकर क्या चुनौतियाँ हैं जो एक फिल्मकार को नकारात्मक रूप को प्रभावित करती हैं? अगर आप अभी फिल्म निर्माण में सक्रीय होते तो किस तरह की फिल्में बनाते.
मुख्य समस्या फाइनेंस को लेकर ही है. उसके बाद अच्छे कलाकारों की उपलब्धता. इसलिए अब बड़ी फिल्में बनाने में असहज महसूस करता हूँ क्योंकि वहां आप बुरी तरह प्रताड़ित भी होते हैं और परेशानी भी मोल लेनी पड़ती है. अगर कल हमारा है से पहले मैं मुंबई में रह जाता तो अभी बी ग्रेड की फिल्में बना रहा होता. मैं अपने तरीके से फिल्म बनाना चाहता हूँ. जिस परिवेश को मैं जानता हूँ, जिसपर पकड़ है मेरी उसको लेकर मैं फिल्म बनाता. मैं ग्राम्य जीवन को जानता और समझता हूँ. मैं आजकल के फाइव स्टार और आजकल के ग्लैमर पर फिल्में नहीं बना सकता. मैं बांग्ला फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ा रहा. इसलिए हिंदी में मेरा झुकाव सामानांतर और सीरियस फिल्मों की तरफ रहा. संवेदनशीलता ही मेरी फिल्मों का आधार है.
राजा हरिश्चंद्र से लेकर हाल ही में रिलीज हुई बाम्बे टाकीज तक. यानि सिनेमा के सौ साल पूरे हो गए हैं. फिल्म तकनीक में कितना कुछ अंतर पाते हैं आप?
सौ साल का हिंदी सिनेमा हो चुका है. इसमें तकनीकी रूप से हम काफी आगे बढ़ चुके हैं. सेलुलोइड का जमाना ख़त्म हो गया है. अब तो वीडियो पर फिल्में बनने लगी हैं. कम्प्यूटर से एडिटिंग हो रही है. एडिटिंग रूम का कोई मतलब नहीं है. डबिंग वगैरह का दौर भी लद रहा है. सिंक साउंड आदि प्रचलन में हैं. फोटोग्राफी से लेकर कर एडिटिंग तक सभी कुछ बदल गया है. विगत सौ सालों में इसे सिनेमा का डेवलपमेंट ही कहा जायेगा. लेकिन एक बात तो तय है कि तकनीक ने कहीं न कहीं कलात्मकता को बुरी तरह से प्रभावित भी किया है.      
एक पचास का दशक था, सत्तर का दशक था और अभी का सिने युग. विगत सौ सालों में सिनेमा का समाज पर कितना प्रभाव रहा है?

पहले जो फिल्में बनती थीं चाहे वह बाम्बे टॉकीज की हो या न्यू थियेटर की हो. उस समय फिल्म में सामाजिक के साथ-साथ राजनैतिक प्रभाव था. वह गाँधी का युग था. अछूत कन्या जैसी फिल्में. आज वह युग ख़त्म हो गया है. आज भी समाज में कई समस्याएं व्याप्त हैं लेकिन उनपर फिल्में नहीं बन रही हैं. उसका एक कारण शायद ये है कि सामाजिक परिवर्तन की बात जो हम करते हैं वह सिनेमा में नहीं है. कुछ ही लोग शायद इसे समझते हैं और इस पर फिल्में बनाते हैं. एक्टर पहले की अपेक्षा काफ़ी अच्छे आ गए हैं. पहले तो वही अशोक कुमार, लीला टिपनिस इत्यादि. आज कितने अभिनेता-अभिनेत्रियाँ आ गए हैं. फिल्में भी ज्यादा बन रही हैं. उन्नति तकनीक को लेकर है परन्तु अवनति विषय वस्तु में दिखती है. लेकिन सोशल कॉन्टेक्ट की बात नजर नहीं आती है. अगर आ पाती हैं तो सिर्फ वही मार पीट, माफिया, गैंग्स, दुनिया भर की बातें होती हैं. आज का सिनेमा वास्तविक समस्याओं को नजरंदाज कर रहा है.
सामानांतर सिनेमा का एक दौर था जब इस तरह की फिल्में सामाजिक समस्याओं को उठाती  थीं. १९७५ में आई आपकी फिल्म डाकबंगला भी एक समानांतर फिल्म थी. सामाजिक व्यवस्था की बात करने वाला और अच्छी फिल्मों को प्रस्तुत करने वाला सामानांतर सिनेमा आख़िरकार बहुत सफल क्यों नहीं हो पाया?
सामाजिक व्यवस्था की बात करने वाला और अच्छी फिल्मों को प्रस्तुत करने वाला सामानांतर सिनेमा आख़िरकार फेल कर गया क्योंकि उसे देखने वाला वर्ग सीमित था और उनके प्रदर्शन के लिए भारत में समुचित थियेटर नहीं थे. इस तरह की फिल्म के प्रदर्शन के लिए सिनेमा हॉल बुक कराना बहुत ही खर्चीला होता है. मुश्किल यह है कि कभी-कभी बुकिंग के जितना भी कलेक्शन नहीं हो पाता है. जब तक उनके रिलीज की व्यवस्था नहीं हो जाती है तब तक क्या बात करेंगे समानांतर सिनेमा की और उसके प्रभाव की. समान्तर सिनेमा साहित्यिक दृष्टिकोण से भी काफ़ी महत्वपूर्ण था. साहित्यिक कृतियों पर भी फिल्में बनाने बनने लगी थीं. मेरी फिल्म डाकबंगला भी साहित्यिक कृति पर आधारित थी और वास्तव में वह भी समानांतर सिनेमा का देन थी. मैंने कोई कमर्शियल फिल्म नहीं बनायी थी. चलिए एक युग गया दूसरा आ गया. नए युग में नए नए निर्देशक, नए नए पटकथा लेखक. आज भी मुंबई में एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग काम कर रहा है. नहीं तो चक दे इण्डिया जैसी एक कमर्शियल फिल्म आपकी संवेदना को कहाँ तक छूती है ? उसका एक दृश एक कॉसेप्ट मुझे काफ़ी अच्छा लगा. जिसमें एक दृश्य में कई देशों के झंडे लहरा रहे हैं और बरसात में खड़े होकर शाहरुख़ खान भारत के झंडे को चढ़ता हुआ देखता है. उस दृश्य में उसने एक बहुत अच्छी बात कही कि- जिस झंडे के लिए हमने एक दिन अंग्रेजों से लड़ते हुए इतनी क़ुरबानी दी आज उसी झंडे को एक फिरंगी के द्वारा चढ़ता हुआ देख रहा हूँ. उस सिनेमा और आज के सिनेमा बहुत फर्क तो है ही. फिल्में देख कर लोग प्रभावित तो होते ही थी. विशेषकर युवा मन. कुछ फिल्में सामाजिक समस्याओं को दिखाती जरूर हैं लेकिन आज ज्यादातर फिल्में शादियाँ और अन्य त्योहारों के नाम पर भव्यता दिखाती हैं और बाजारवाद को बढ़ावा देती हैं. आज कहाँ कोई दहेज़ जैसी समस्या पर बात करता दिखता है जो आज भी हमारे समय में व्याप्त है.
हिंदी का साहित्यकार फिल्मों में क्यों सफल नहीं हो पाता. लेखक की जगह स्क्रिप्ट रायटर्स ने ले ली है. जिनपर अपनी पहली से ही फिल्म से कमर्शियली सफल होने का दबाव होता है. फिल्मकारों ने शायद साहित्य को पढना कम कर दिया है क्योंकि साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बहुत ही कम आ रही हैं. आज की कमोबेश स्थिति यह है कि लेखक या साहित्यकार एक तो फिल्मों में आना नहीं चाहते या जो आते हैं उनके बारे में यही कहा जाता है कि ये फिल्मों के लिए स्मार्ट और कूल लेखन नहीं कर पाते हैं.
हिंदी सिनेमा में साहित्यिक कृतियों पर कम फिल्में बन रही हैं. लेकिन मलयालम, बांग्ला आदि में तो साहित्यिक कृतियों को ही प्रथम स्थान दिया गया है.बांग्ला में फ़िल्मी लेखक नहीं होता है वहां साहित्यिक कृतियों पर ही फिल्में बनती हैं या पब्लिश्ड कहानियों पर पटकथा लिखी जाती है. हिंदी में यह नहीं होता क्योंकि भौगोलिक रूप से यह संभव नहीं है कि हम किसी प्रदेश की फिल्म को आगे रखें. हमको सबसे पहले सर्वभारतीय विचारधारा रखनी होती है. फ़िल्मकार के पास भी उतना समय नहीं है. उसकी दिलचस्पी केवल कहानी पर होती है. इसलिए साहित्यकार फेल ही रहे हैं. मुंशी प्रेमचंद भी वापस लौट आये थे. उनकी रचना पर बाद में फिल्में बन जाए ये बात अलग है. पटकथा लेखक के हिसाब से मनोहर श्याम जोशी सबसे सफल लेखकों में रहे हैं. उनके सीरियल काफी सफल रहे हैं. वो युग अब सिनेमा से छोटे परदे पर चला आया है.   
बिहार में युवाओं के लिए आज भी आजीविका एक समस्या है. ऐसी स्थिति में युवा फिल्म निर्माण को अपना कैरियर कैसे बना सकते हैं ?
सिनेमा एक उद्योग है. इसमें कैरियर की संभावनाएं तो हैं ही. वास्तव में जो फिल्म को अपना करियर बनाना चाहते हैं उनके लिए इसमें काफ़ी संघर्ष है. बिहार में रहने वाला कोई फ़िल्मकार ऐसा नहीं दीखता है जो फिल्मों से ही अपनी रोजी रोटी चला रहा हो. कुछ लोग लघु फिल्में जरूर बनाते हैं, पर वो भी सरकारी अनुदान पर. जिसमें उनका रिस्क नहीं होता. ऐसी स्थिति में सफलता और असफलता के कोई मायने नहीं रह जाते हैं. फिल्मों के प्रति उनकी रूचि भी नहीं दिखती है. ऐसी मानसिक स्थिति को लेकर बिहार में फिल्म उद्योग के आगे नहीं बढ़ सकता है. बिहार में तीन महीने के लिए एक फिल्म एप्रेसिएशन कोर्स बिहार सरकार के द्वारा चलाया जाता है. हर वर्ष चालीस-पैंतालिस युवा इस कोर्स को करते हैं. लेकिन उनमें ज्यादातर फिल्म निर्माण को अपना कैरियर नहीं बनाना चाहते हैं. कुछ लोग हैं लेकिन वे आगे नहीं आ पा रहे हैं.   
कोई भी अपना होता’ के बाद आपने कोई बड़ी फिल्म नहीं बनायी है . १९८५ के बाद के वर्षों में आपने क्या काम किया? आपकी भविष्य की क्या योजनायें हैं?
यह बात सही है कि मैंने कोई बड़ी फिल्म नहीं बनाई. लेकिन मैंने कुछ लघु फिल्मों का निर्माण किया. जिनमें बिहार के कला संस्कृति और इतिहास पर आधारित बिहार इतिहास के पन्नों पर, विरासत, मंडन मिश्र पर शास्त्रार्थ और बिहार के साहित्यकारों जैसे दिनकर, रेणु आदि पर लघु फिल्में बनाई. पटना दूरदर्शन के लिए हिमांशु श्रीवास्तव के उपन्यास पर आधारित ‘लोहे के पंख’ धारावाहिक का निर्माण किया. यह ग्राम्य जीवन पर आधारित थी  जो बेहद चर्चित रही. बहुत साल पहले मैंने बिहार के ही साहित्यकार राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह के उपन्यास सूरदास को पढ़ा था जिसने मुझे बहुत ही प्रभावित किया था. आजकल उसी उपन्यास पर आधारित एक फिल्म ‘अंतर्द्वंद’ का निर्माण पर काम कर रहा हूँ. 

( नवनीत नीरव के साथ बातचीत पर आधारित)