बम -बम
बम - बम मेरा या यूँ कहें तो हमारा (हमारा इस लिए कि वह मेरा और मेरे छोटे भाई का ,जो मुझसे कुछ साल ही छोटा है ) पहला दोस्त था । मैं उस समय तीन साल का था ।जब मेरे पापा ने झारखण्ड (पहले बिहार) के गढ़वा शहर में व्याख्याता के पद पर योगदान किया था।इसी कारण मेरा परिवार गढ़वा चला आया। मैं उस नई जगह पर बहुत ही खुश था । नई जगह ,नया वातावरण ,नया शहर और सबसे बड़ी बात मैं पहली बार, शहर में आया था। किराये का मकान था। जिसकी पहली मंजिल पर हम रहा करते थे। उसके सामने बहुत बड़ा मैदान था जिसमें शाम को बहुत सारे लड़के खेलने आते थे। उसी मैदान के एक कोने पर एक बड़ा-सा मकान था। जिसमें शर्मा जी रहते थे। वो पेशे से इंजीनियर थे। बम -बम उन्हीं का छोटा लड़का था।घर पास में ही होने के कारण हमारा उनके यहाँ आना - जाना लगा रहता था। मैं और मेरा छोटा भाई बम-बम के साथ खेलने के लिए जाते थे ।
उसके पास एक छोटी सी साईकिल थी । सच बताऊँ वही साईकिल हमारे आकर्षण का कारण थी । उसी साईकिल को चलाने की इच्छा से हम उसके यहाँ जाते थे ।मैं साईकिल के पीछे - पीछे न जाने कितनी देर तक भागता रहता था। मैं उम्र में सबसे बड़ा था न ,इसलिए साईकिल चलाने का मौका कम ही पाता था । पर न जाने क्यों मुझे उसे चलाने से ज्यादा ,उसके पीछे-पीछे भागने में ही ज्यादा आनंद आता था।कभी साईकिल के साथ -साथ तो कभी उसके पीछे- पीछे। हमारा यह खेल बम-बम के लॉन मैं लगे अमरूद के पेड़ से शुरू होकर मैदान में बने गोलंबर तक चलता रहता था।हम में से किसी की पढ़ाई अब तक शुरू नहीं हो पाई थी ,इसलिए दिन में हमारी कोशिश यही रहती थी कि हम साथ में खेलते रहे। जब तक कि हमारे घर से कोई बुलाने न आ जाए।
बद्री जी, जो बम -बम के पापा के ऑफिस में काम करते थे, वो भी वहीँ पास के खपरैल वाले घर में रहते थे । उसी घर में मुर्गियों भी पालीं गई थीं । बद्री जी ही उनको दाना - पानी दिया करते थे । बम-बम हमें अक्सर उस दडबे के पास ले जाया करता था और हम बाहर की जाली से उन मुर्गियों को देखा करते थे । बम -बम समय -समय पर बताया करता था की किस मुर्गी ने आज अंडा दिया है ? इसी तरह समय बीत रहा था।
एक बार हम दशहरे की छुटियों में घर गए थे । जब वापस लौटे तो पता चला कि उसके पापा का तबादला किसी दूसरे शहर में हो गया है । वो लोग आज सुबह जा रहे हैं । अगली सुबह जब मेरी नींद खुली तो पता चला की वो लोग चले गए हैं । मैं उससे नहीं मिल पाया ।
धीरे -धीरे समय बीतता गया । कहते हैं कि यादों के आईने में जब वक्त की धूल जमने लगती है तो चेहरे भी धुंधले दिखते हैं। यही मेरे साथ भी हुआ है आज मुझे मेरे दोस्त का चेहरा याद नहीं है । उसके उस किराये वाले मकान को देखता हूँ तो उसकी बातें याद आ जाती हैं।
पिछले साल उसके मम्मी -पापा हमारे शहर आए थे । उनसे हमारी मुलाकात हुई थी । उनको मैंने लगभग बीस साल के बाद देखा था । कुछ -कुछ स्मृतियाँ जेहन में अभी-भी बरक़रार हैं ,जिसके कारण मैंने उन्हें देखते ही पहचान लिया । बम-बम के बारे में भी थोडी बहुत बातें हुईं पर न जाने उसकी बातें सुनकर अपनापन जैसा महसूस नहीं हो रहा था। मैंने कुछ और जानने की इच्छा भी प्रकट नहीं की। शायद यह समय का प्रभाव था या फिर मेरी सोच का ....
आज जब मैं अपने बीते हुए कल की यादों में अपने दोस्तों को खोजने की कोशिश कर रहा हूँ तो मुझे अनायास ही बम - बम की याद आ गई । मैं उसे याद हूँ कि नहीं , यह तो कहना बड़ा मुश्किल है । पर मैं तो यह कह ही सकता हूँ कि बम -बम ही मेरा पहला दोस्त है ................................................
बम - बम मेरा या यूँ कहें तो हमारा (हमारा इस लिए कि वह मेरा और मेरे छोटे भाई का ,जो मुझसे कुछ साल ही छोटा है ) पहला दोस्त था । मैं उस समय तीन साल का था ।जब मेरे पापा ने झारखण्ड (पहले बिहार) के गढ़वा शहर में व्याख्याता के पद पर योगदान किया था।इसी कारण मेरा परिवार गढ़वा चला आया। मैं उस नई जगह पर बहुत ही खुश था । नई जगह ,नया वातावरण ,नया शहर और सबसे बड़ी बात मैं पहली बार, शहर में आया था। किराये का मकान था। जिसकी पहली मंजिल पर हम रहा करते थे। उसके सामने बहुत बड़ा मैदान था जिसमें शाम को बहुत सारे लड़के खेलने आते थे। उसी मैदान के एक कोने पर एक बड़ा-सा मकान था। जिसमें शर्मा जी रहते थे। वो पेशे से इंजीनियर थे। बम -बम उन्हीं का छोटा लड़का था।घर पास में ही होने के कारण हमारा उनके यहाँ आना - जाना लगा रहता था। मैं और मेरा छोटा भाई बम-बम के साथ खेलने के लिए जाते थे ।
उसके पास एक छोटी सी साईकिल थी । सच बताऊँ वही साईकिल हमारे आकर्षण का कारण थी । उसी साईकिल को चलाने की इच्छा से हम उसके यहाँ जाते थे ।मैं साईकिल के पीछे - पीछे न जाने कितनी देर तक भागता रहता था। मैं उम्र में सबसे बड़ा था न ,इसलिए साईकिल चलाने का मौका कम ही पाता था । पर न जाने क्यों मुझे उसे चलाने से ज्यादा ,उसके पीछे-पीछे भागने में ही ज्यादा आनंद आता था।कभी साईकिल के साथ -साथ तो कभी उसके पीछे- पीछे। हमारा यह खेल बम-बम के लॉन मैं लगे अमरूद के पेड़ से शुरू होकर मैदान में बने गोलंबर तक चलता रहता था।हम में से किसी की पढ़ाई अब तक शुरू नहीं हो पाई थी ,इसलिए दिन में हमारी कोशिश यही रहती थी कि हम साथ में खेलते रहे। जब तक कि हमारे घर से कोई बुलाने न आ जाए।
बद्री जी, जो बम -बम के पापा के ऑफिस में काम करते थे, वो भी वहीँ पास के खपरैल वाले घर में रहते थे । उसी घर में मुर्गियों भी पालीं गई थीं । बद्री जी ही उनको दाना - पानी दिया करते थे । बम-बम हमें अक्सर उस दडबे के पास ले जाया करता था और हम बाहर की जाली से उन मुर्गियों को देखा करते थे । बम -बम समय -समय पर बताया करता था की किस मुर्गी ने आज अंडा दिया है ? इसी तरह समय बीत रहा था।
एक बार हम दशहरे की छुटियों में घर गए थे । जब वापस लौटे तो पता चला कि उसके पापा का तबादला किसी दूसरे शहर में हो गया है । वो लोग आज सुबह जा रहे हैं । अगली सुबह जब मेरी नींद खुली तो पता चला की वो लोग चले गए हैं । मैं उससे नहीं मिल पाया ।
धीरे -धीरे समय बीतता गया । कहते हैं कि यादों के आईने में जब वक्त की धूल जमने लगती है तो चेहरे भी धुंधले दिखते हैं। यही मेरे साथ भी हुआ है आज मुझे मेरे दोस्त का चेहरा याद नहीं है । उसके उस किराये वाले मकान को देखता हूँ तो उसकी बातें याद आ जाती हैं।
पिछले साल उसके मम्मी -पापा हमारे शहर आए थे । उनसे हमारी मुलाकात हुई थी । उनको मैंने लगभग बीस साल के बाद देखा था । कुछ -कुछ स्मृतियाँ जेहन में अभी-भी बरक़रार हैं ,जिसके कारण मैंने उन्हें देखते ही पहचान लिया । बम-बम के बारे में भी थोडी बहुत बातें हुईं पर न जाने उसकी बातें सुनकर अपनापन जैसा महसूस नहीं हो रहा था। मैंने कुछ और जानने की इच्छा भी प्रकट नहीं की। शायद यह समय का प्रभाव था या फिर मेरी सोच का ....
आज जब मैं अपने बीते हुए कल की यादों में अपने दोस्तों को खोजने की कोशिश कर रहा हूँ तो मुझे अनायास ही बम - बम की याद आ गई । मैं उसे याद हूँ कि नहीं , यह तो कहना बड़ा मुश्किल है । पर मैं तो यह कह ही सकता हूँ कि बम -बम ही मेरा पहला दोस्त है ................................................