रमेश
बात उन दिनों की है जब मैंने स्कूल जाने की शुरुआत की थी। पहला दिन अच्छी तरह याद है मुझे । मेरा हाथ पकड़ कर पापा मुझे स्कूल ले गए थे । मुझको रस्ते भर न जाने क्या - क्या बातें बता रहे थे । सारी बातें इस समय याद करना बड़ा कठिन हो रहा है । और हो भी क्यों न ?उस समय मेरी ज्ञान की खिड़कियों पर शीशे जो चढे थे । शायद इसी लिए उनकी आवाज मुझ तक नही पहुँच पायी। स्कूल पहुँचने पर मैंने पाया कि मुझ जैसे कितने ही बच्चे वहां नए थे । कुछ तो बहुत खुश थे, परन्तु कुछ बहुत बुरी तरह रो रहे थे। शायद वे समझ नही पा रहे थे कि आज माँ और पापा मुझे क्यों अकेला छोड़ कर जा रहे हैं। उनकी चीखें स्कूल के शांत वातावरण को ऐसे भंग कर रही थी जैसे रात के सन्नाटे में टिटहिरी की आवाज। मेरी क्लास की शिक्षिका उन बच्चों का हाथ पकड़ लेती और अभिभावकों से अनुरोध करती की आप यहाँ से चले जाएँ । अभिभावक मन को मजबूत करने का अभिनय जरूर करते थे, पर आँखें भींग जाती थीं। स्कूल की देवी (बच्चों की देखभाल करने वाली महिला) भी बच्चों को समझाने की कोशिश कर रही थीं। कक्षा शुरू होते ही कुछ बच्चों का मन माहौल के अनुसार ढल गया । हमारी शिक्षिका बराबर बच्चों का ध्यान बटाने की कोशिश करती रहीं थीं । कभी कुछ खिलौने दिखाकर , कभी दीवार से टंगे जानवरों के चित्र दिखाकर। मैं बार-बार ध्यान देने की कोशिश कर रहा था, परन्तु असफल रहा। कारण मेरे बगल मैं बैठा लड़का। उसे उसका बड़ा भाई अपनी साईकिल से पहुँचाने आया था और देवी का हाथ पकड़ा कर वह वहां से चला गया था । वह जोर -जोर से तो नहीं रो रहा था , पर उसकी आँखें गीलीं थी । उसकी बड़ी -बड़ी डबडबाई आंखें देखकर लगता था कि आँसू अभी उसकी गालों पर लुढ़क पड़ेंगे। वह बार - बार कक्षा के दरवाजे की तरफ देख रहा था।शायद उसे अभी भी विश्वास नही हो रहा था कि उसका भाई जो उससे इतना प्यार करता है , उसका ख्याल रखता है, उसे यहाँ छोड़ कर गया है। सच कहूं तो मेरा ध्यान शिक्षिका की बातों पर कम उस लड़के पर ज्यादा था। हो भी क्यों न ?मैंने पहली बार ऐसी स्थिती का सामना कर रहा था , जिसका कारण मेरी समझ में भी नही आ रहा था। मध्यावकाश तक मैं उसकी हर गतिविधि को देखता रहा , परन्तु उससे बातें नहीं हो पाई।
लंच ब्रेक में मैं उसके साथ ही बैठा। मेरे पूछने पर उसने अपना नाम बताया था - रमेश । वह मेरे शहर से १० किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्र से आया था इतना याद है मुझे । परन्तु किस जगह से यह बात मुझे याद नही आ रही। वह ग्रामीण क्षेत्र का ही था, यह इसलिए मैं कह सकता हूँ क्योंकि उसने बताया था कि वह पहले भी शहर घूमने के लिए आया है । दशहरे के मेले के बारे में बताते वक्त उसका चेहरा खिल सा गया था, मुझे याद है । मानों उमस भरी गर्मी में ठंडी बयार का झोंका आया हो और उसके मन की तपिश को मद्धम कर गया हो । उसने बताया कि उसका भाई आज उसे शहर घुमाने के लिए लाया था, परन्तु यहाँ छोड़ गया । बोला है कि -शाम में शहर में घुमायेगा। अभी उसको कुछ काम है, इसलिए वह मुझे साथ नही ले गया।अभी उसके मन में एक आशा थी। शहर देखने की आशा। उसे अपने भाई से कोई शिकायत नही थी । वह उससे प्यार जो करता था। लंच के बाद उसने मुझे गाँव और अपने बारे में बहुत सारी बातें बताई थीं। मेरे साथ बात करते - करते वह कुछ सहज महसूस कर रहा था ।मैं ऐसा इसलिए कह सकता हूँ क्योंकि अब उसका ध्यान दवाजे की तरफ बहुत कम ही जा रहा था।शाम को छुट्टी के वक्त मैं जब वापस लौट रहा था तो मैंने देखा की वह अपने भाई साईकिल आगे बैठ कर जा रहा है । उसने रस्ते में मुझे देखा तो मुस्कुरा दिया ।मैंने मुस्कराहट में ही प्रतिक्रिया दी थी, मुझे याद है।
अगले दिन जब वह स्कूल आया तो बहुत ही खुश था। कल शाम को उसने शहर घूमा था।बड़े उत्साह से वह सारी बातें बता रहा था।कल दिन भर वह रोता रहा , इसका उसे गम नहीं था । उसके चेहरे पर संतोष के भाव थे । आज उसका ध्यान दरवाजे की तरफ भी नहीं था क्योंकि उसे मालूम था कि उसका भाई उसे आज फिर शहर घुमायेगा। सच कहूं तो उसकी खुशी देखकर मुझे उस समय इर्ष्या हो रही थी। यह मनुष्य का स्वाभाविक व्यवहार कि जब तक कोई दुखी रहता है तब तक तो हम उसके हर दर्द में सहभागी बनते हैं ,परन्तु जैसे ही वह अच्छी स्थिति में आता है तो हमसे उसकी खुशी बर्दाश्त नहीं हो पाती।इसी कारण से मुझे उस वक्त उसकी खुशी से जलन महसूस हो रही थी ।मैं शहर मैं जरूर रहता था, परन्तु इस तरह घूमने के इरादे से घूमा नहीं था। उसी शाम को मैंने पापा से शहर घुमाने के लिए जिद किया था । और पापा हंस कर टाल गए थे । जैसे - जैसे स्कूल में समय बीतता गया हमारे और दोस्त बनते गए और हमारी सोच और कल्पनाओं का दायरा भी बढ़ता गया। कुछ नई बातें हर रोज जानने को मिलती थीं । भले ही उनमें सच्चाई नाममात्र की ही थी। भला बच्चों को उससे क्या लेना । ये सब बातें नर्सरी कक्षा की है जिसमें दो वर्ष पढ़ना था 'ऐ और बी'। साल भर देखते ही देखते बीत गए। उस बीच कई दोस्त बने जिनमें से कुछ आज तक भी मेरे साथ हैं । कुछ बिछड़ गए । मन चाहता भी है तो भी उनसे मिल नहीं पाता । हाँ रमेश साल भर मेरे ही साथ था। कम बोलता जरूर था परन्तु गाँव के उसके अनुभव कमाल लगते थे मुझे ।बड़े दिन की छुट्टी से पहले हमने अपनी परीक्षाएं दी । छुट्टियों का भरपूर आनंद लिए क्यों कि वह मेरी पहली बड़े दिन कि छुट्टी थी। मकर सक्रांति की अगली सुबह हमारा स्कूल खुला। असेम्बली में प्रार्थना हो रही थी । सारे दोस्त वहां थे। पर मेरी नजरें रमेश को ही ढूंढ , जिससे अभी तक मुलाकात नहीं हो पायी थी। प्रार्थना के बाद प्रधानाध्यापिका ने एक सूचना दी - कल मकर सक्रांति का पर्व था। जिसमें लोग नदी में स्नान करते हैं । उसी प्रक्रिया में हमारे स्कूल के नर्सरी क्लास के एक छात्र रमेश कुमार नदी में डूब जाने से मौत हो गई । आइये हम सब उसकी आत्मा की शान्ति के लिए एक मिनट का मौन रखें । मुझे झटका सा लगा था। मेरी उम्र कम थी ,शायद इसलिए पीडा का भी अहसाह कम था। मौन के समय आँखें जरूर बंद थीं पर चेहरा भींग गया था। यह पहला दर्द था जिसकी टीस मैं आज भी महसूस करता हूँ।
लंच ब्रेक में मैं उसके साथ ही बैठा। मेरे पूछने पर उसने अपना नाम बताया था - रमेश । वह मेरे शहर से १० किलोमीटर दूर ग्रामीण क्षेत्र से आया था इतना याद है मुझे । परन्तु किस जगह से यह बात मुझे याद नही आ रही। वह ग्रामीण क्षेत्र का ही था, यह इसलिए मैं कह सकता हूँ क्योंकि उसने बताया था कि वह पहले भी शहर घूमने के लिए आया है । दशहरे के मेले के बारे में बताते वक्त उसका चेहरा खिल सा गया था, मुझे याद है । मानों उमस भरी गर्मी में ठंडी बयार का झोंका आया हो और उसके मन की तपिश को मद्धम कर गया हो । उसने बताया कि उसका भाई आज उसे शहर घुमाने के लिए लाया था, परन्तु यहाँ छोड़ गया । बोला है कि -शाम में शहर में घुमायेगा। अभी उसको कुछ काम है, इसलिए वह मुझे साथ नही ले गया।अभी उसके मन में एक आशा थी। शहर देखने की आशा। उसे अपने भाई से कोई शिकायत नही थी । वह उससे प्यार जो करता था। लंच के बाद उसने मुझे गाँव और अपने बारे में बहुत सारी बातें बताई थीं। मेरे साथ बात करते - करते वह कुछ सहज महसूस कर रहा था ।मैं ऐसा इसलिए कह सकता हूँ क्योंकि अब उसका ध्यान दवाजे की तरफ बहुत कम ही जा रहा था।शाम को छुट्टी के वक्त मैं जब वापस लौट रहा था तो मैंने देखा की वह अपने भाई साईकिल आगे बैठ कर जा रहा है । उसने रस्ते में मुझे देखा तो मुस्कुरा दिया ।मैंने मुस्कराहट में ही प्रतिक्रिया दी थी, मुझे याद है।
अगले दिन जब वह स्कूल आया तो बहुत ही खुश था। कल शाम को उसने शहर घूमा था।बड़े उत्साह से वह सारी बातें बता रहा था।कल दिन भर वह रोता रहा , इसका उसे गम नहीं था । उसके चेहरे पर संतोष के भाव थे । आज उसका ध्यान दरवाजे की तरफ भी नहीं था क्योंकि उसे मालूम था कि उसका भाई उसे आज फिर शहर घुमायेगा। सच कहूं तो उसकी खुशी देखकर मुझे उस समय इर्ष्या हो रही थी। यह मनुष्य का स्वाभाविक व्यवहार कि जब तक कोई दुखी रहता है तब तक तो हम उसके हर दर्द में सहभागी बनते हैं ,परन्तु जैसे ही वह अच्छी स्थिति में आता है तो हमसे उसकी खुशी बर्दाश्त नहीं हो पाती।इसी कारण से मुझे उस वक्त उसकी खुशी से जलन महसूस हो रही थी ।मैं शहर मैं जरूर रहता था, परन्तु इस तरह घूमने के इरादे से घूमा नहीं था। उसी शाम को मैंने पापा से शहर घुमाने के लिए जिद किया था । और पापा हंस कर टाल गए थे । जैसे - जैसे स्कूल में समय बीतता गया हमारे और दोस्त बनते गए और हमारी सोच और कल्पनाओं का दायरा भी बढ़ता गया। कुछ नई बातें हर रोज जानने को मिलती थीं । भले ही उनमें सच्चाई नाममात्र की ही थी। भला बच्चों को उससे क्या लेना । ये सब बातें नर्सरी कक्षा की है जिसमें दो वर्ष पढ़ना था 'ऐ और बी'। साल भर देखते ही देखते बीत गए। उस बीच कई दोस्त बने जिनमें से कुछ आज तक भी मेरे साथ हैं । कुछ बिछड़ गए । मन चाहता भी है तो भी उनसे मिल नहीं पाता । हाँ रमेश साल भर मेरे ही साथ था। कम बोलता जरूर था परन्तु गाँव के उसके अनुभव कमाल लगते थे मुझे ।बड़े दिन की छुट्टी से पहले हमने अपनी परीक्षाएं दी । छुट्टियों का भरपूर आनंद लिए क्यों कि वह मेरी पहली बड़े दिन कि छुट्टी थी। मकर सक्रांति की अगली सुबह हमारा स्कूल खुला। असेम्बली में प्रार्थना हो रही थी । सारे दोस्त वहां थे। पर मेरी नजरें रमेश को ही ढूंढ , जिससे अभी तक मुलाकात नहीं हो पायी थी। प्रार्थना के बाद प्रधानाध्यापिका ने एक सूचना दी - कल मकर सक्रांति का पर्व था। जिसमें लोग नदी में स्नान करते हैं । उसी प्रक्रिया में हमारे स्कूल के नर्सरी क्लास के एक छात्र रमेश कुमार नदी में डूब जाने से मौत हो गई । आइये हम सब उसकी आत्मा की शान्ति के लिए एक मिनट का मौन रखें । मुझे झटका सा लगा था। मेरी उम्र कम थी ,शायद इसलिए पीडा का भी अहसाह कम था। मौन के समय आँखें जरूर बंद थीं पर चेहरा भींग गया था। यह पहला दर्द था जिसकी टीस मैं आज भी महसूस करता हूँ।