Wednesday, April 29, 2009

छोटे -छोटे रिश्ते

बचपन की यादों में ज्यादातर प्रसंग स्कूल के ज़माने से ही याद आते हैं । चाहे वह नर्सरी क्लास से हों या फिर मिडिल स्कूल से। मैंने नर्सरी क्लास से आठवीं क्लास तक की पढ़ाई एक ही स्कूल से की है । सिर्फ़ आठवीं तक ही नही पूरे हाई स्कूल की भी पढ़ाई उसी शहर से हुई है जहाँ का मैं रहने वाला हूँ। ये बात अलग है कि हाई में स्कूल बदल गया था। इतने साल एक ही स्कूल में पढने के दो कारण थे- पहला कि मेरा स्कूल इस शहर का सबसे अच्छा स्कूल था और दूसरा कि मेरे पापा का किसी दूसरे शहर में कभी तबादला नहीं हुआ। प्रोफेसर होने के कारण आज भी उसी महाविद्यालय में अध्यापन का कार्य करते हैं, जिसमें २५ साल पहले योगदान किया था। पिछले सप्ताह ही उन्होंने फोन पर बताया कि -हो सकता है मई महीने के अंत तक उनका तबादला डाल्टनगंज शहर में हों जाए और वे वहां चले जाएँ।कारण है कि - उनका कालेज अब डाल्टनगंज स्थित विश्वविद्यालय नीलाम्बर -पीताम्बर के अर्न्तगत आता है। जिसकी शुरुआत इसी साल जनवरी महीने में हुई है। इससे पहले इनका महाविद्यालय रांची विश्वविद्यालय की एक अंगीभूत इकाई था। एक सीनियर प्रोफेसर होने के नाते इन्हें अब यूनिवर्सिटी में योगदान देने के लिए बुलाया जा रहा है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने मुझसे बात की थी। तबादले की बात सुनकर मुझे मेरे बचपन के दिन याद आ रहे है जब मेरी भी इच्छा होती थी की पापा का तबादला दूसरे शहर में हों जाए।
स्कूलों में अक्सर कई सहपाठी ऐसे मिलते थे जिनके अभिभावक का तबादला इसी शहर में हो गया होता था।जिनमें कुछ तो सत्र प्रारम्भ होने पर आते थे, पर कुछ ऐसे भी होते थे जो सत्र के बीच में आते थे। स्कूल में साल शुरू होने पर कई सहपाठी नए होते थे, इसलिए जो दूसरे शहर से आए होते थे वो आराम से स्कूल के वातावरण में नए बच्चों के संग ढल जाते थे। पर जो सत्र के बीच में आते , उन्हें नए सत्र तक सामंजस्य बिठाने में तकलीफ होती थी।कारण स्पस्ट था एक तो नया माहौल, दूसरा पाठ्यक्रम आगे बढ़ गया होता था जिसे समझने में उन्हें कुछ समय लग जाता था और तीसरा कोई पुराना बच्चा उनसे बात नहीं करता था । बड़ी मुश्किल होती थी उन्हें । ये सारी समस्याएं सातवीं -आठवीं कक्षाओं तक ही थीं। नये बच्चों को हम सब बड़ी ही अजीब सी दृष्टि से देखते थे। लगता था कि या तो ये कुछ नही जानता या फिर कम बोलने वाला बच्चा है। कुछ दिनों तक यही चलता रहता पर बाद में दोस्ती हो जाती थी। उन्हीं दोस्तों में यामिनी, दिव्या, अमित, प्रवीण, गिरीश, राजेश, रुचिरा और न जाने कितने दोस्त बने ,पर समय के साथ उनका भी साथ छूट गया। चूँकि मैं उस स्कूल में अपने क्लास के उन चंद बच्चों में से हूँ, जिसने स्कूल में शुरू की कक्षा से अंत तक एक ही स्कूल में पढ़ाई की है। इसलिए बहुत सारे लोगों को मैंने आते और साथ छोड़ कर जाते देखा है। नए सहपाठियों से मेरी दोस्ती भी बहुत जल्दी हो जाती थी। इसीलिए स्कूल में मेरे बहुत सारे अच्छे दोस्त बने जिनमें से एक -दो को छोड़ कर आज किसी के भी संपर्क में नहीं हूँ।जिनके संपर्क में हूँ वो इसलिए क्योंकि वो मेरे शहर के स्थाई निवासी रहे हैं। स्कूल में मिलने और बिछड़ने का सिलसिला इतना चला की युवावस्था में नए दोस्त बने ही नहीं। कहते हैं की युवावस्था में आजन्म चलने वाली मित्रता कायम होती है।पर मुझे लगता है कि मुझ पर यह बात अब लागू नहीं होगी।
जब नए बच्चों से दोस्ती होती थी, तो वे अपने बारे में बहुत सारी बातें बताते थे।अपने पुराने शहर ,अपने घर ,अपने दोस्त जिन्हें छोड़ कर वे यहाँ आए हैं और कुछ रोचक घटनाएं जिनमें भले ही सच्चाई नाममात्र की रहती थी पर हमारे लिए जिज्ञासा का कारण बन ही जाती थीं। जिन्हें हमसभी बड़े ही ध्यान से सुनते और अपने ख्यालों में रंग भरने की कोशिश करते। जिसदिन मैं ऐसी कोई भी बात सुनता था ,अपने घर जाकर पापा से इसकी चर्चा जरूर करता। उन दिनों ऐसे बच्चे हमारे हीरो बन जाते थे। कभी -कभी तो गर्व महसूस होता था कि- ये मेरा दोस्त है । पर कभी कभी क्लास में दोस्तों के बीच मान कम होने से वो मेरे प्रतिद्वंदी भी बन जाते थे।पर ये सब ज्यादा दिनों तक नहीं चलता था ,कुछ दिनों में ही वो हमसे घुल मिल जाते थे। बिल्कुल अच्छे दोस्त की तरह। हर काम हम साथ में ही करते थे।खेलन कूदना, साथ में टिफिन खाना, क्लास में साथ में ही बैठना आदि । स्कूल की हर गतिविधियों में साथ -साथ ही भाग लेते थे हम ।दिन बहुत ही अच्छा गुजरता था जो आज- कल के लिए कल्पनाएँ ही हैं। और फिर वो समय भी आता था, जब उन्हें मुझे छोड़ के जाना पड़ता था।कभी -कभी नए जगह जाने की बातें रोमांचक लगाती थीं, पर साथ छूट जाने की बातें न जाने क्यों मन को उदास कर जातीं। उसदिन स्कूल से घर वापस लौटता तो पापा से यही शिकायत होती थी कि आपका तबादला क्यों नहीं होता है । मेरे सारे दोस्त आते है और चले जाते है पर मैं यहीं रह जाता हूँ।उनमें से कोई जब ये बताता था कि वो एक हफ्ते के बाद जाने वाला है, तो वो दिन मेरे लिए बहुत ही कठिन होते थे । मन में आता था कि अभी गुजरने वाली सारी घटनाओं को किसी कैमरे में कैद कर लूँ या फिर वक्त को ही रोक लूँ । उम्र कम थी इसलिए शायद उनके सामने अपने सारे जज्बात भी नहीं बता सकता था । डरता था कि कहीं वो इसे न समझ पाएं। मन की बातें मन में ही रह जाती थीं।कभी -कभी घर में गुस्से के रूप में निकलती थीं या फिर किसी दूसरी बात पर रोने के बहाने से ।जो जाने वाले होते थे उन्हें तो बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि नई जगह की कल्पनाएँ बड़ा ही सुकून देती हैं । मेरी भूमिका उस व्यक्ति जैसी होती थी, जो किसी को स्टेशन पर रेलगाड़ी से लेने जाए और फिर दुबारा छोड़ने भी।
जब भी मैं उस समय की बातें जब याद करता हूँ तो मन सुखद अहसासों से भर जाता है। कभी -कभी सोचता हूँ कि मैं उन्हें क्यों याद कर रहा हूँ ? क्या वो मुझे भी याद करते होंगे ? ऐसे रिश्ते छोटे जरूर होते है, पर इनकी बात जुदा होती है। ये छोटे -छोटे रिश्ते हमारी जिंदगी में भले ही बहुत अहमियत नहीं रखते हों ,पर स्थाई रिश्तों जैसे तकलीफदेह भी नहीं होते।

-नवनीत नीरव-