
जीना अतीत या भविष्य में तो नहीं होता. वर्तमान के भाग रहे पल में हम जी लेते हैं. इन भागते, बहते, सरकते पलों को बांध लेने, सहेजते रहने की चाह साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ बनी. इतिहास लेखन, आत्मकथा, संस्मरण, यात्रा वृतांत बनीं. कहने का अभिप्राय है कि इसी बहाने कला के बेजोड़ नमूने गढ़े और प्रस्तुत किये गए. यायावरी या घुम्मकड़ी भी एक कला है. जिसे राजीव रंजन प्रसाद अपनी कृति “मौन मगध में” सार्थक करते दिखते हैं. अपनी पहली ही कृति “आमचो बस्तर” से चर्चित हुए लेखक एवं पर्यावरणविद राजीव रंजन प्रसाद की यह दूसरी कृति है. मगध की ख़ामोशी और चीखते सवालों पर केन्द्रित यह कृति आज तमाम इतिहासकारों, पुरातत्वविद, शोधार्थी एवं हिंदी के तमाम पाठकों के बीच चर्चा का विषय है. ‘मगध’ अपने आप में एक विस्तृत और बड़ा दिलचस्प विषय है जिसकी चर्चा किसी न किसी बहाने हजारों बरसों पुराने इतिहासकाल के संग चली आ रही है.उन्ही ऐतिहासिक गाथाओं एवं घटनाओं को नए सन्दर्भ से जोड़कर प्रस्तुत किया है लेखक राजीव रंजन प्रसाद ने.
विश्वदीपक राजीव रंजन के बारे में एक पुस्तक समीक्षा में लिखते हैं कि राजीव मगध के नहीं हैं, बस्तरिया हैं, बस्तर से आये हैं. लेकिन इन्हें पढ़कर यही लगता है कि मगध जितना हमारा है, उतना ही या उससे ज्यादा इनका हो चुका है. लेखक ने हाल के वर्षों में खुद को बस्तर विषय में रचे बसे एक विशेषज्ञ की तरह से प्रस्तुत किया है. बस्तर के आदिवासी जन-जीवन, लोक-गाथाएं, लोककलाएं एवं वर्त्तमान के संघर्षों पर इनकी गहरी पकड़ है. आये दिन स्थानीय एवं राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में इनके सारगर्भित लेख पढ़ने को मिलते हैं. शायद इसी वजह से “मौन मगध में” किताब की प्रेरणा बस्तर में गुप्त साम्राज्य की एक पुरानी बुद्ध की प्रतिमा रही है जिसे आज के बस्तर के आदिवासी जनजाति समुदाय ने तंत्रविद्या का देवता “भोंगादेव” अथवा गांडादेव बना दिया है. प्राचीन बस्तर की तलाश में ही लेखक ने पटना से अपनी यात्रा शुरू कर नालंदा, राजगीर, बोधगया और भागलपुर के समीप विक्रमशिला विद्यालय के खंडहरों तक की यात्रा की है.
भारत के कई इतिहासकारों और पुरातत्वविदों ने मगध की प्राचीन राजधानियों और विश्वविद्यालयों के बारे में बहुत कुछ लिखा है. राजीव इसी परम्परा को ईमानदारी से आगे बढ़ाते दिखते हैं. श्रीकांत वर्मा के प्रसिद्ध कविता संग्रह “मगध” के सहारे एक तरह से मगध को आधुनिक समय में फिर से खोजने की कोशिश करते हैं. जिसमें मददगार बनते हैं पटना, नालंदा, गया और भागलपुर के पुरातन स्मारक, अवशेषों के टुकड़े, प्राचीन मंदिर, जनश्रुति और मान्यताएं. जिज्ञासाओं का निवारण तो होता है फिर भी कई सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं.
“ तुम भी तो मगध को ढूंढ रहे हो
बंधुओं, यह वह मगध नहीं,
जिसे तुमने पढ़ा है, किताबों में,
जिसे तुम मेरी तरह गँवा चुके हो.....”
नालंदा के गौरवशाली परम्परा, ह्वेनसांग की यात्रा, बुद्ध, महावीर, जरासंध, पाल राजवंश, बोधगया का इतिहास, विक्रमशिला विश्वविद्यालय और बख्तियार खिलजी की विध्वंसक सेना के बारे में लेखक ने विस्तार से प्रकाश डाला है. जिसमें कई बातें राजीव रंजन के गहन शोध एवं विमर्श के कारण ही समाहित हो पायी हैं. स्मारकों की दुर्दशा, एक समय के बाद खंडहरों की खुदाई न होना, धार्मिक प्रतिस्पर्धा के कारण होने वाले नुकसान और नयी पीढ़ी के अपने धरोहरों के प्रति उदासीनता को लेखक ने बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है जो पाठक को सोचने पर मजबूर करती है. नालंदा के ह्वेनसांग मेमोरियल की चर्चा करते हुए लेखक ने प्रथम प्रधानमत्री जवाहर लाल नेहरु और चीन के राष्ट्रपति चाऊ इन लाई के संयुक्त प्रयासों और फिर बाद में चीनी आक्रमण के द्वारा पञ्चशील के सिद्धांतों की होली जलाने का जिक्र भी किया है. ह्वेनसांग का वर्णन करते हुए लेखक लिखता है कि वे एक असंतुष्ट शोधकर्ता थे इसलिए यात्री बन गए. ह्वेनसांग मेमोरियल में उनके यात्रा वृतांतों पर पेंटिंग्स बनी हुई हैं. एक पेंटिंग में ह्वेनसांग को ‘बामियान बुद्ध” की विशाल प्रतिमा के साथ दिखाया गया है. अगर एक दशक पहले की अपनी यादाश्त को हम ताज़ा करें तो पायेंगे कि तालिबान द्वारा मानवता की इस प्राचीन विरासत को मार्च, २००१ में उड़ा दिया गया था और फिर उसी वर्ष सितम्बर में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को उड़ा देना महज एक संयोग नहीं था. अगर अमेरिका ने बामियान बुद्ध की प्रतिमा को उड़ाये जाने का प्रतिरोध किया होता तो शायद वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को बचाया जा सकता था. जो आख़िरकार उसने इस घटना के बाद आफनिस्तान में किया.
बहुत सारी अच्छी बातों के बीच “मौन मगध में” एक बात अधूरी रह जाती है. वह है मगध की प्राचीन राजधानी ओदंतपुरी की विस्तृत चर्चा. शुरू से ही इतिहासकार मगध की दो राजधानियों राजगृह और पाटलिपुत्र तथा प्राचीन विश्वविद्यालयों नालंदा और विक्रमशिला की चर्चा तो करते हैं, परन्तु मगध की एक और राजधानी ओदंतपुरी (वर्तमान में बिहारशरीफ) और ओदंतपुरी विश्वविद्यालय की चर्चा छोड़ देते हैं. राजीव रंजन जी भी इस बात को छूते हुए निकल जाते हैं. बिहारशरीफ एक प्राचीन नगर है. इसी नगर ने इस राज्य को बिहार नाम दिया है. ७५० ई० से १५३४ ई० तक यह मगध राज्य की राजधानी था. इसके बारे में फाहियान, ह्वेनसांग, इत्सिंग, धर्मस्वामी, बुस्तान, सुमपा, लामा तारानाथ से लेकर बुकानन, कनिघम, ब्रौडले, बेलगर, फ्रैंकलिन आदि सरीखे प्रख्यात पुराविदों ने लिखा है. किन्तु उनके द्वारा लिखित ओदंतपुरी का मूल इतिहास जमींदोज है. बिहारशरीफ शहर की कचहरी और नालंदा कॉलेज उसी गढ़ पर स्थित बताये जाते हैं. आश्चर्य की बात है कि इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता. स्थानीय इतिहासकार हरिश्चंद्र प्रियदर्शी इसके बारे में अफ़सोस जताते हुए कहते हैं कि “ धरती में धंसी पृथ्वी का उद्धारक वराह कब प्रकट होगा पता नहीं? मौन मगध ने भी इस पर प्रकाश नहीं डाला है. तिब्बत का राजधर्म इसी ओदंतपुरी विश्वविद्यालय ने दिया था. बिहारशरीफ के मुहल्लों के नामों में इसकी धमक आज भी सुनी जा सकती है- किला, गढ़, महल, बारादरी, खंदकपर, धनेश्वरघाट आदि. पर हमारी पीढ़ी इतिहासबोध भूल चुकी है.”
"कहाँ सुन रहे हम धरती की धमनियों में लरज आया अविश्वास का कम्पन
पड़े हैं सूरत नक़्शे कदम, न छेड़ो हमें
हम और खाक में मिल जायेंगे उठाने से. "
ढूह बने गए टीलों के चारों ओर लगे ब्रिटिश राज्य के “निषेध एरिया” की तख्ती को आजाद भारत में उखाड़ फेंका गया. ऐतिहासिक धरोहरों की जमीन खरीदी-बेचीं गयी. इतिहास के मलबे पर ऊँची इमारतें खड़ी कर दी गयीं. स्थानीय लोगों ने ही मूर्तियों की चोरी की. कवि दुष्यंत कुमार कभी बिहारशरीफ नहीं आये थे फिर भी उनका एक शेर यहाँ के हालात और नयी पीढ़ी के रवैये पर सटीक बैठता है -
"मुड़ के देखेगी हिकारत से तुझे तारीख कल,
तेरी पीढ़ी में किसी धड़ पर कोई चेहरा न था."
विडम्बनाएं बहुत सारी हैं. यह ऐतिहासिक नगर न तो राज्य के पुरातात्विक नक़्शे पर है, न ही पर्यटक नक़्शे पर. सुना है कोई पुरातत्व विभाग भी है, कोई पर्यटन विभाग भी है.
सनम, सुना है तुम्हारे भी कमर है!
कहाँ है? किस तरफ है? किधर है ?
शायद यह भी एक वजह है कि इतिहास के पन्नों में जीता-जगता मगध अब मौन है.
-नवनीत नीरव -